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से नन्द्यावर्त की छत और चहारदीवारी छोड़ी है, किसी घर-द्वार का साया नहीं स्वीकारा है । जब दिशाएँ ही मेरा वसन बन गई हैं, तो बीच मे दीवारें और छतें कहाँ रह पाती हैं ! मन्दरचारी मन्दिर के साये में कैसे समाये ? आकाश के इस विराट नीलम-महल से अधिक रक्षा अन्यत्र कहाँ सम्भव है ।
सो कुटिया के खुले आँगन में एक ओर पड़ा शिला-तल्प ही मेरा एक मात्र आसन और शयन बन गया है । प्राय: उसी पर प्रतिमायोग में आसीन हो, चाहे जब ध्यानलीन हो जाता हूँ । कभी खुली आँखों सकल चराचर को सम्पूर्ण संचेतना से अपलक निहारता रहता हूँ । घंटों पलक अनिमेष खुले रह जाते हैं । प्रकृति के एक-एक आकार, स्पन्दन, परिणमन से तद्रूप तदाकार हो रहता हूँ. . .। और बहिर्मुख दर्शन की यह तल्लीनता ही, जाने कब आत्मलीनता हो जाती है । आपोआप ही पलक मुंद जाते हैं । और भ्रूमध्य के आज्ञाचक्र में अवस्थित होकर, अपने नासाग्र पर समस्त लोक की लीला का तद्गत साक्षात्कार करता रहता हूँ। कभी हिलोर आती है, तो बाहर के परिसर में विहार करता, किसी वनखण्ड के एकान्त में जाकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ । ___संध्या में कभी-कभी आषाढ़ के बादल घिर कर मन्द-मन्द गर्जन होता है। ईशान कोण में बिजली लहक जाती है। कभी हलकी बंदा-बांदी भी हो जाती है। पर अभी भी खुल कर वर्षा नहीं हुई है। बस्ती के लोग जंगलों की सारी घास काट ले जाते हैं। नई घास अभी उगी नहीं है। सो जंगली गायें, नील गायें, हरिण आदि क्षुधात होकर वन में तृण-चारे के लिए भटकते हैं। आश्रम के कुटीरों की विपुल घास देखकर वे इधर लपक आते हैं। तापस ब्रह्मचारी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहते हैं। तभी उनकी असावधानी में भीतर घुस आकर ये वन्य चौपाये, उनकी कुटियों की घांस खाने लगते हैं। पता लगने पर तापस दौड़े आते हैं, और उन पर डंडों का प्रहार कर उन्हें भगा देते हैं। · · विचित्र है मेरी यह काया, कि उन निर्दोष क्षुधार्त प्राणियों पर जब मार पड़ती है, तो मेरे अंग उससे कसक उठते हैं। नया तो कुछ नहीं है, बचपन से ही मेरा शरीर ऐसा ही सम्वेदनशील रहा है।
तापसों की मार के भय से भाग कर, ये वनले जीवधारी अब मेरी कुटिया की ओर आने लगे हैं। यहाँ कोई बाधा या वर्जना न पा कर, सुखपूर्वक मेरी कुटिया को चरते रहते हैं। और यहाँ से आश्रम प्रांगण को निर्जन देख कर, अन्य कुटियों की घांस चरने को भी चले जाते हैं।
तापसों को मेरी यह तटस्थता देखकर बहुत क्रोध आया। वे आपस में बतियाने लगे कि कैसा विचित्र है यह राजपुत्र श्रमण, जो अपने आवास की रक्षा तक नहीं करता। पशु बड़ी मौज से इसकी कुटिया खाते रहते हैं,
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