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पर यह न तो उनका ताड़न करता है, न उन्हें बरजता है। उलटे चाहे जब ये पशु-मृग उसके आसपास निर्भय सभा जुड़ाये खड़े रहते हैं। कुटिया की घास भकुस ला कर, उसी के सामने डाल, निरापद भाव से उसे चरते और जुगाली करते रहते हैं। और तो और इस सुन्दर सुकुमार तपस्वी को अपने तन की तक पर्वाह नहीं। शिलासन पर स्वयम् भी शिलीभूत हो कर जड़वत् निश्चल बैठा रहता है। और ये पशु बेखटक इससे शरीर से अपने तन का रभस कर, अपनी खुजाल मिटाते रहते हैं। तो कभी इसके अंगों को जिह्वा से चाटते दीखते हैं। पर यह तो ऐसा जड़ भरत है, कि कोई भेड़िया आकर, इसके अंगों का भक्षण कर जाये, तब भी इसे कोई भान न आये।
.. तापसों के इन मनोभावों और कथनों को इस सामने के आकाश की तरह पढ़ता-सुनता रहता हूँ। सच ही तो कहते हैं ये। पर क्या उपाय है। राजश्वर्य छोड़ कर इसीलिए तो निकल पड़ा हूँ, कि एक कण पर भी अपना कोई अधिकार नहीं रक्खूगा। स्वयम् स्वतन्त्र विचरूँगा और कण-कण को अपने से स्वतन्त्र, उसके निज भाव में मुक्त परिणमन करने दूंगा। तब मेरे लिए क्या आश्रम, क्या कुटीर, क्या वन, क्या पहाड़, क्या बस्ती, क्या स्मशान, सभी एक समान हैं। जब स्वयम् पूर्ण स्वतन्त्र हो जाऊँगा, तो सारे चराचर प्राणी, अपनी स्वतन्त्रता में अक्षुण्ण रह कर मेरे धर्म-साम्राज्य का शासन सहज ही स्वीकार लेंगे। उससे पूर्व किसी वर्जन या ताड़न से कोई शासन चलाना, मेरे स्वभाव में संभव नहीं। ___मेरे पास आने का साहस तो वे तापस न कर सके। पर अपने कुलपति से उन्होंने मेरी उदासीन चर्या की शिकायत की : 'हे कुलपति, आपको यह तरुण राजर्षि आत्मा के समान प्रिय है, हम जानते हैं। सो हम भी इसकी यथेष्ट सेवा और सम्मान करते हैं। पर विचित्र है आपका यह अतिथि, जो वन्य-चौपायों को निर्बाध अपनी झोंपड़ी चरने देता है। तब वे ढीठ पशु हमारी सारी ताड़ना के बावजूद, निर्भय होकर, हमारे कुटीरों को खाने आ जाते हैं। न तो यह देवानुप्रिय अपनी रक्षा करता है, न औरों की रक्षा का ध्यान रखता है। कैसा उदासी, अकृतज्ञ, दाक्षिण्यहीन, और प्रमादी है यह श्रमण। और कहो कि मौनी और समभावी मुनि है, तो वह तो हम भी हैं, फिर हमें ही क्या पड़ी है, जो इसकी सेवा और रक्षा करें. . ।'
कुलपति धर्म-संकट में पड़ गये। उन्हें पहले तो प्रतीति न हुई। तब स्वयम् आकर उन्होंने देखा। सच ही जो कुटीर मुझे दिया गया था, वह उजड़ गया था। शाखा-पत्रहीन जैसे कोई ठूठ हो। पाँखों आये पंछी की तरह वह आच्छादनहीन और उड़ने को उद्यत दीखा। कुलपति चिन्तामग्न हो गये। सोच में पड़े चुप खड़े रहे। फिर बहुत ही मृदु वचनों में मुझे सम्बोधन किया :
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