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जानाणव व योगशास्त्र : एक तुलनात्मक अध्ययन
करना चाहिये । पाप की शका से जीवित शरीर में प्रवेश पृष्ठौ च दक्षिणाक्षरवेस्तवाहराचार्याः ॥ यहां नहीं कहा जा रहा है । यथा
जाना. पृ. २६७-७० एवं परासु-देहेषु प्रविशेद वामनासया ।
३. नाडीशुद्धि करते वहनपर बिनकरस्य मार्गेण । जीवद्देहप्रवेशस्तु नोच्यतं पापशंकया ॥५, २६०
निष्कामद्विशदि दोः पुरमित रेण केऽच्याहुः॥
ज्ञाना. पृ. ३००-८७ पूर्व साहित्य का परिशीलन
४. षोडश मितः कश्चित् निर्णीतो वायसंक्रम । दोनो ग्रन्थो मे प्ररूपित विषयो को देखते हुए यह यह महोरात्रमित काले द्वयोर्नाड्योर्ययाक्रमम् । निश्चित ज्ञात होता है कि प्राचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र
ज्ञाना पृ. ५०१-६० दोनो ही तलस्पर्शी विद्वान् थे। उनके सामने जो भी योगशास्त्रयोगविषयक प्राचीन साहित्य उपस्थित था उसका उन्होने १. प्राणायामस्ततः कश्चित् प्राधितो ध्यानसिखये। ५-१ गम्भीर अध्ययन किया था। इसका मंकेत इन दोनो ग्रन्थो
.. प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चापरस्तथा । के विषय विवेचन में स्वय उपलब्ध होता है। यथा
एभिवेश्चभिस्तु सप्तधा कीर्यते परंः ॥ ५-५ १. त्रिधा लभणभेदेन सस्मृतः पूर्वसूरिभिः ।
३. चन्द्र स्त्री पुरुषः सूर्ये मध्यभागे नपुंसकम् । पूरकः कुम्भक चंव रेचक स्तदनन्तरम् ॥
प्रश्नकाले तु विज्ञेयमिति कश्चिन्निगद्यते ॥ .३५ जाना पृ. २८५-३
४. अग्रे वाभिागे हि शशिक्षेत्र प्रचक्षते । २. अग्ने वामविभागे चन्द्रक्षेत्र वदन्ति तत्त्वविवः ।
पृष्ठे दक्षिणभाग त रविक्षेत्र मनीषिणः।२४१
रूपक पद
कवि धासोराम मोहनी गग में गाया गया कवि घासीराम का यह रूपक पद प्रात्मा और शरीर की पृथकता पर सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। कवि कहता है कि जीव को इस कायारूपी नगरी मे किस प्रकार से रहना चाहिए। उसका एक सुन्दर दृश्य अकित किया है । शरीर रूपी कुप्रा एक है पाचो इन्द्रिया पनिहारी है, वे प्रपना-अपना नीर भरती है। उसके पुर जाने से कुमा का पानी सूख गया, तब वे पाचो पनिहारी विलखती है । हम उड गया केवल मिट्री पडी रहनी है, उस कचन महल और रूपामय छज्जे को छोड कर नगरी का राजा चला गया। इससे हमे विवेक की मोर दृष्टि देना चाहिए और पर पदार्थों में ममता हटा कर चैतन्य स्वरूप प्रात्मा की पोर दृष्टि दना चाहिए ।
राग सोहनी इस नगरी में किस विधि रहना नित उठ तलब लगावे री भेना । एक कुमा पांचों पणिहारी, नीर भरे सब न्यारी न्यारी १ पुर गया कमा सूख गया पानी, विलख रही पांचों पणिहारी॥२ बालू की रेत मोस को टाटी, उड गया हंस पड़ी रही माटी ॥३ कंचन महल रूप्यमय छाजा, छोड़ चला नगरी का राजा ।।४ 'घासीराम' सहज का मेला, उड़ गया हाकिम लुट गया रेरा ॥५