________________
समोहणित्ता संखेजाई जोयणाई जाव दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोवन्त्रियाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्णरुप्पमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं, अट्टसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं भोमिजाणं कलसाणं एवं भिंगाराणं, आयंसाणं, थालाणं, पाईणं, सुपतिट्ठाणं, वायकरगाणं, रयणकरंडगाणं, पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं, पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं, सीहासणाणं, छत्ताणं, चामराणं, तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं, झयाणं, अट्ठसहस्सं धूवकडुच्छुयाणं विउव्वंति ।
१९०. (१) तत्पश्चात् वे आभियोगिक देव सामानिक देवों की इस आज्ञा को सुनकर हर्षित यावत् विकसित हृदय हुए। दोनों हाथ जोड आवर्त्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके बोले-“देव ! बहुत अच्छा। ऐसा ही करेंगे ।" यों विनयपूर्वक आज्ञा - वचनों को स्वीकार किया । स्वीकार करके वे उत्तर- -पूर्व दिग्भाग में गये और उस उत्तर-1 -पूर्व दिग्भाग में जाकर उन्होने वैक्रिय समुद्घात किया ।
वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दण्ड बनाया । पुनः दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात करके एक हजार आठ स्वर्णकलश', रुप्यकलश २, मणिमयकलश ३, स्वर्ण-रजतमयकलश, स्वर्ण - मणिमयकलश', रजत - मणिमयकलश ६, स्वर्ण-रुप्यमणिमयकलश, भौमेय (मिट्टी के) कलश', यों प्रत्येक प्रकार के एक हजार आठ कलशों की रचना की । इसी प्रकार एक हजार आठ-एक हजार आठ भृगारों', दर्पणों, थालों ३, पात्रियों, सुप्रतिष्ठानों" (बाजोट), वातकरकों ६, रत्नकरंडकों, पुष्पचंगेरिकाओं", मयूरपिच्छचंगेरिकाओं, पुष्पपटलको १०, मयूरपिच्छपटलको ११, सिंहासनों १२, छत्रों १३, चामरों१४, तेलसमुद्गकों१५, अजनसमुद्गकों १६, ध्वजाओं १७, धूपकडुच्छकों १८ (धूपदानों) की भी रचना की । सूत्र १३ / ७ के अनुसार समस्त वर्णन समझें।
99
,
190. (1) The serving gods felt happy and cheerful at these orders of Saamanik gods. They folded their hand, placed them at their foreheads and said - "Respected Sir ! We shall do as directed.” They thus accepted the orders humbly. Thereafter they went in northeast direction and performed fluid emanation.
While creating the fluid form, they emanated the soul particles in the form of a stick numerable yojans long by the process of fluid
सूर्याभ वर्णन
Description of Suryabh Dev
Jain Education International
(187)
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org