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“भदन्त ! बात यह है कि मेरा आप देवानुप्रिय से जब सबसे प्रथम वार्त्तालाप हुआ तभी मेरे मन में इस प्रकार का विचार / संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस पुरुष के साथ जितना - जितना और जैसे-जैसे विपरीत यावत् प्रतिकूल व्यवहार करूँगा, उतना - उतना और वैसे-वैसे मैं अधिक-अधिक तत्त्व को जानूँगा, ज्ञान प्राप्त करूँगा, चारित्र को, चारित्र लाभ को, तत्त्वार्थ श्रद्धारूप दर्शन - सम्यक्त्व को, सम्यक्त्व लाभ को, जीव को, जीव के स्वरूप को समझ सकूँगा । इसी कारण आप देवानुप्रिय के प्रति मैने ( जानबूझकर उद्देश्यपूर्वक) विपरीत यावत् अत्यन्त विरुद्ध व्यवहार किया है।"
262. Then king Pradeshi, expressing his inner feelings said—
"Sir! The fact is that when my discussion with you started for the first time, it was in my mind that I shall know reality from you to the extent I behave in an indiscreet and indifferent manner. I shall gain knowledge, I shall learn about right conduct, I shall learn right faith, I shall understand the reality about Jiva (soul) in that fashion. So with this aim in my mind I intentionally behaved with you in an entirely undesirable and opposite manner (than the desired one).
विवेचन - केशीकुमार श्रमण ने राजा प्रदेशी के समक्ष चार प्रकार की परिषद् का वर्णन करके उसे मुनि द्वारा कहे गये कठोर वचनो पर नाराज नही होने का सकेत किया है। टीका मे व अन्य ग्रन्थो मे चार प्रकार की परिषद् का अधिक वर्णन नही मिलता और न ही यह विश्लेषण कि इससे केशीकुमार श्रमण किस दडनीति की ओर संकेत करना चाहते है। फिर भी हम यह अनुमान कर सकते है कि राजा स्वय क्षत्रिय परिषद् से सम्बन्धित है और केशीकुमार श्रमण ऋषि परिषद् है । क्षत्रिय परिषद् का सदस्य यदि कोई अपराध करता है तो उसका दंड बहुत कठोर होता है। जबकि ऋषि परिषद् के अपराधी को सामान्य वचनो से ही उपालभ दिया जाता है। क्षत्रिय राजा ने ऋषि का अपमान किया है। तो दडनीति के अनुसार तो उसका बहुत ही कठोर दड होना चाहिए। जबकि ऋषि यदि किसी का अपमान भी कर देता है तो उसे सामान्य शिष्ट वचन ही कहे जाते है। यहाॅ राजा ने मुनि को जड, मूढ, अज्ञानी, अपण्डित आदि अत्यन्त तिरस्कारपूर्ण शब्द कहे है, तथा बिना अभिवादन किये ही उनकी धर्मसभा में आकर प्रश्न पूछे है। मुनि ने तो उसे 'कर-चोर वणिक्' और 'अल्पज्ञ मूर्ख कठियारे' की उपमा दी है। इस दृष्टि से राजा का अपराध अधिक भारी है, उसकी तुलना में मुनि ने कुछ भी कठोर या अप्रिय वचन नही कहे। इस नीति को समझकर मुनि के अप्रिय शब्दो से राजा को नाराज नही होना चाहिए। लगता है इस उदाहरण द्वारा केशीकुमार श्रमण यही कहना चाहते है ।
Elaboration-Keshi Kumar Shraman by referring to four types of assemblies has pointed out to king Pradeshi that he should not be angry at the harsh words of a saint. In the commentary and in other religious
रायपसेणियसूत्र
Rai-paseniya Sutra
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