Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

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Page 448
________________ ॐ हंता जाणामि, कलायरियस्स सिप्पायरिस्स उवलेवणं संमजणं वा करेजा, पुरओ पुप्फाणि वा आणवेजा, मञ्जावेजा, मंडावेजा, भोयाविना वा विउलं जीवितारिहं पीइदाणं * दलएजा, पुत्ताणुपत्तियं वित्तिं कप्पेजा। __ जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा तत्थेव वंदेजा णमंसेजा सक्कारेजा सम्माणेजा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेना, फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं * पडिलाभेजा, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिजा-संथारएणं उवनिमंतेजा। ___ एवं च ताव तुमं पएसी ! एवं जाणासि तहावि णं तुमं ममं वामं वामेणं जाव वट्टित्ता ममं एयमटुं अखामित्ता जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ? २६९. तब केशीकुमार श्रमण ने कहा_ “प्रदेशी । जानते हो कितने प्रकार के आचार्य होते हैं ?" ___ प्रदेशी-“हाँ, भदन्त ! जानता हूँ, तीन प्रकार के आचार्य होते हैं-(१) कलाचार्य, (२) शिल्पाचार्य, और (३) धर्माचार्य। * केशीकुमार श्रमण-“प्रदेशी ! तुम जानते हो कि इन तीन आचार्यों में से किसकी कैसी * विनय-प्रतिपत्ति करनी चाहिए ? (किसके साथ कैसा आदरपूर्ण व्यवहार करना चाहिए?)" प्रदेशी-“हाँ, भदन्त ! जानता हूँ। (शिष्य को) कलाचार्य और शिल्पाचार्य के शरीर पर चन्दनादि का लेप और तेल आदि का मर्दन करना चाहिए, उन्हें स्नान कराना चाहिए तथा उनके * सामने पुष्प आदि भेंट रूप में रखना चाहिए, उनके कपड़ों आदि को सुरभिगन्ध से सुगन्धित करना चाहिए, आभूषणो आदि से उन्हे अलंकृत करना चाहिए, आदरपूर्वक भोजन कराना चाहिए और आजीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान (धन आदि) देना चाहिए एवं उनके लिए ऐसी * आजीविका की व्यवस्था करनी चाहिए कि उनके पुत्र-पौत्रादि परम्परा भी जिसका लाभ ले सकें। * धर्माचार्य के जहाँ भी दर्शन हों, वहीं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहिए, उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिए और उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप एव ज्ञानरूप मानकर उनकी पर्युपासना करनी चाहिए। अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य भोजन-पान से उन्हें प्रतिलाभित करना चाहिए। पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिए उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।' " केशीकुमार श्रमण-“प्रदेशी ! (आश्चर्य है) इस प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति (शिष्टाचार) जानते हुए भी तुम अभी तक मेरे प्रति जो प्रतिकूल व्यवहार एवं प्रवृत्ति करते आये हो, उसके लिए क्षमा मांगे बिना ही सेयविया नगरी की ओर चलने के लिए उद्यत हो रहे हो?' * केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा (387) Keshi Kumar Shraman and King Pradeshi * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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