Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

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Page 350
________________ तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी-पएसी ! से जहाणामए अंकवाणिया इ वा, संखवाणिया इ वा, दंतवाणिया इ वा, सुंकं भंसिउंकामा णो सम्मं पंथं पुच्छइ, एवामेव पएसी ! तुब्भे वि विणयं भंसेउकामो नो सम्मं पुच्छसि। से णूणं तव पएसी ममं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-जड्डा खलु भो ! जड्डं पज्जुवासंति, जाव पवियरित्तए, से णूणं पएसी अढे समत्थे ? हंता ! अत्थिा २३९. चित्त सारथी के साथ प्रदेशी राजा, जहाँ केशीकुमार श्रमण विराजमान थे, वहाँ 9 आया और केशीकुमार श्रमण से कुछ दूर खड़े होकर बोला-“हे भदन्त ! क्या आप आधोऽवधिज्ञानधारी हैं ? क्या आप अन्नजीवी हैं ?' ___ तब केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-“हे प्रदेशी ! जैसे कोई अंकवणिक (अंकरन का व्यापारी) अथवा शंखवणिक्, दन्तवणिक्, राज-कर (सरकारी टैक्स) न देने के विचार से सीधा मार्ग नही पूछता (सीधे रास्ते से नहीं आता), इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी विनयप्रतिपत्ति (विनय-शिष्टाचार) नहीं करने की भावना से प्रेरित होकर मुझसे प्रश्न करने की समुचित रीति से नहीं पूछ रहे हो। " हे प्रदेशी ! मुझे देखकर क्या तुम्हें यह विचार नहीं हुआ था, कि ये जड-जड की * पर्युपासना करते हैं, यावत् मैं अपनी ही भूमि में स्वेच्छापूर्वक घूम-फिर नहीं सकता हूँ? प्रदेशी ! क्या मेरा यह कथन सत्य है ?" प्रदेशी-(चौंककर) “हॉ, आपका कहना सत्य है अर्थात् मेरे मन में ऐसा विचार आया था।" ___239. King Pradeshi came with Chitta Saarthi to the place where Keshi Kumar Shraman was present. He came there, stopped at a distance and said—“O the blessed! Are you possessing Avadhi Jnan limited to a particular area ? Are you Ann Jeevi ?" ____Then Keshi Kumar Shraman said to king Pradeshi-O Pradeshi ! Just as a trader in gems (Ank gems) or in conch, in tusks (ivory) does not ask the direct route (does not follow the direct op route) in order to avoid tax, similarly O Pradeshi ! You also in order to avoid gratitude, are not asking question from me in the prescribed proper mamer. र केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा ( 307 ) Keshi Kumar Shraman and King Pradeshi * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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