Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

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Page 389
________________ एवामेव पएसी ! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढविं भिच्चा, सिलं भिच्चा, पव्वयं भिच्चा अंतोर्हितो बहिया णिग्गच्छइ, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! अण्णो जीवो तं चेव । २४९. प्रदेशी राजा के इस तर्क को सुनकर केशीकुमार श्रमण ने कहा "हे प्रदेशी । (उदाहरण के रूप में) जैसे कोई एक कूटाकारशाला हो और वह भीतर-बाहर चारो ओर लिपी हुई हो, अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार भी गुप्त हो और हवा का प्रवेश भी जिसमें नहीं हो सके, ऐसी गहरी हो । यदि उस कूटाकारशाला के भीतर कोई पुरुष भेरी (नगाडा) और बजाने के लिए डंडा हाथ में लेकर घुस जाये और घुसकर उस कूटाकारशाला के द्वार आदि को इस प्रकार चारों ओर से बन्द कर दे कि जिससे कहीं पर भी थोड़ा-सा अन्तर नही रहे (हवा निकलने को भी छेद न रहे) और उसके बाद उस कूटाकारशाला के बीचोंबीच खड़े होकर डडे से भेरी को जोर-जोर से बजाये तो तुम्हीं बताओ कि वह भीतर की आवाज बाहर निकलती है अथवा नहीं ? अर्थात् भीतर की ध्वनि बाहर सुनाई पड़ती है या नहीं ?" प्रदेशी - "हॉ, भदन्त ! निकलती है।" केशीकुमार श्रमण - "हे प्रदेशी ! क्या उस कूटाकारशाला में कोई छिद्र अथवा दरार हुई है कि जिसमें से वह शब्द बाहर निकला हो ?" प्रदेशी - "हे भदन्त ! वहॉ पर कोई छिद्रादि नही होता कि जिससे शब्द बाहर निकल सके।" केशकुमार श्रमण - "तो हे प्रदेशी ! इसी प्रकार जीव भी अप्रतिहत गति वाला है; उसकी गति कहीं नहीं रुकती । वह पृथ्वी का भेदन कर, शिला का भेदन कर, पर्वत का भेदन कर भीतर से बाहर निकल जाता है । इसीलिए तुम यह श्रद्धा-प्रतीति करो कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् है, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है । " ILLUSTRATION OF KOOTAKARSHALA (A TEMPLE ON SUMMIT OF A HILL) 249. After hearing this argument of king Pradeshi Keshi Kumar Shraman said "O Pradeshi! Imagine a temple on summit of a hill and that it is pasted on all sides from both inside and outside. It is well covered. Its entrance is also secret. It is so deep that even air cannot enter it. Imagine that a person enters it with a stick and a drum and then he closes the door in such a way that there is no space even for the air रायपसेणियसूत्र Rai-paseniya Sutra Jain Education International (342) For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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