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अब्भुटेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं। एवमेयं निगंथं पावयणं।
तहमेयं भंते ! निग्गंथं पावयणं। अवितहमेयं भंते ! निग्गंथं पावयणं। असंदिद्धमेयं., निग्गंथं पावयणं, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! जं णं तुब्भे वदह।
त्ति कटु वंदइ नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी
जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा जाव इब्भा इन्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं एवं धणं- धनं-बलं-वाहणं-कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल संतसारसावएज्जं विच्छड्डित्ता विगोवइत्ता, दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचयंति, णो
खलु अहं ता संचाएमि चिच्चा हिरण्णं तं चेव जाव पव्वइत्तए। ___ अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म
पडिवज्जित्तए। ___ अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि।
२२०. इसके पश्चात् चित्त सारथी केशीकुमार श्रमण से धर्मश्रवण कर एवं उसे हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट होता हुआ अपने आसन से उठा। उठकर केशीकुमार श्रमण की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला
"भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है। भगवन् ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रतीति (विश्वास) करता हूँ। भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन रुचिकर लगता है। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ। भगवन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ऐसा ही है।
भगवन् ! आपका यह कथन तथ्य-यथार्थ है। भगवन् ! यह अवितथ-सत्य है। असंदिग्ध है-शंका-संदेह से रहित है। मैंने इसकी इच्छा की है। मुझे इच्छित, प्रतीच्छित है अर्थात् मैं इसकी पुनः-पुनः इच्छा करता हूँ। भगवन् ! यह वैसा ही है जैसा आप निरूपण-कथन करते हैं।"
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* केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा
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Keshi Kumar Shraman and King Pradeshi
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