Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 36 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय आत्मा के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाला कोई लिंग भी गृहीत होता है, जिससे कि आत्मा अनुमान द्वारा जाना जा सके / प्रत्यक्ष और अनुमान, ये दो ही बौद्धसम्मत प्रमाण हैं। इस प्रकार बौद्ध प्रतिपादन करते हैं। फिर वे कहते हैं-ये पाँचों स्कन्ध क्षणयोगी हैं, अर्थात् ये स्कन्ध न तो कूटस्थनित्य हैं, और न ही कालान्तर स्थायी हैं, ये सिर्फ क्षणमात्र स्थायी हैं। दूसरे क्षण ही समूल नष्ट हो जाते हैं। परमसूक्ष्म काल 'क्षण' कहलाता है / स्कन्धों के क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिए वे अनुमान प्रयोग करते हैं-स्कन्ध क्षणिक हैं, क्योंकि वे सत् हैं / जो जो सत् होता है, वह-वह क्षणिक होता है, जैसे मेघमाला / मेघमाला क्षणिक है, क्योंकि वह सत् है। उसी प्रकार सभी सत् पदार्थ क्षणिक हैं। सत् का लक्षण अर्थक्रियाकारित्त्व है।५६ सत् में स्थायित्व या नित्यत्व घटित नहीं होता, क्योंकि नित्य पदार्थ अर्थक्रिया नहीं कर सकता, इसलिए सत् में क्षणिकत्व ही घटित होता है / नित्य पदार्थ में क्रम स या युगपद् (एक साथ) अर्थक्रिया नहीं हो सकती, इसलिए सभी पदाथों को आनत्य माना ज उनकी क्षणिकता अनायास ही सिद्ध हो सकती है, और पदार्थों की उत्पत्ति हो उसके विनाश का कारण है, जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं होता, वह बाद में कभी नष्ट नहीं होगा। अतः सिद्ध हुआ कि पदार्थ अपने स्वभाव से अनित्य क्षणिक हैं, नित्य नहीं। __ 'अण्णो अणण्णो' 'हेउयं अहेउयं'–पदों का आशय-वृत्तिकार ने इन चारों पदों का रहस्य खोलते हुए कहा है कि जिस प्रकार आत्मषष्ठवादो सांख्य पंचभूतों से भिन्न आत्मा को मानते हैं, या जिस प्रकार पंचमहाभूतवादी या तज्जीव-तच्छरीरवादी पंचभूतों से अभिन्न आत्मा को मानते हैं, उस प्रकार ये बौद्ध न तो पंचभूतों से भिन्न आत्मा को मानते हैं, न ही पंचभूतों से अभिन्न आत्मा को। इसी प्रकार बौद्ध आत्मा को न तो सहेतुक (शरीर रूप में परिणत पंचभूतों से उत्पन्न) मानते हैं, और न ही अहेतुक (बिना किसी कारण से आदि-अन्तरहित नित्य) आत्मा को मानते हैं, चूर्णिकार भी इसी से सहमत है इसका उल्लेख उनके द्वारा मान्य ग्रन्थ सुत्तपिटक के दीघनिकायान्तर्गत महालिसुत्त और जालियसुत्त में मिलता है।" चातुर्धातुकवाद : क्षणिकवाद का दूसरा रूप १८वीं गाथा में क्षणिकवाद के दूसरे रूप चातुर्धातुकवाद का शास्त्रकार ने निरूपण किया है। यह मान्यता भी वृत्तिकार के अनुसार कतिपय बौद्धों की है। चातुर्धातुकवाद का स्वरूप सुत्तपिटक के मज्झिम निकाय के अनुसार इस प्रकार है 58 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 25.26 56 'अर्थक्रिया समर्थ यत् तदत्र परमार्थ सत्' -प्रमाणवार्तिक 60 क्रमेण युगपच्चापि यस्मादर्थक्रिया कृता / न भवन्ति स्थिरा भावा निःसत्त्वास्ततो मता:। -तत्त्वसंग्रह 61 (क) सूत्रकृ० शीला० वृ० पत्रांक 26 (ख) '.."अहं खो पनेतं, आवसो, एवं जानामि, एवं पस्सामि, अथ च पनाहं न वदामि तं जीवं तं सरीरं ति वा अचं जीवं अञ्ज सरीरं ति बा।" -सुत्तपिटके दीघनिकाय भा० पृ० 166 (ग) केचिदन्यं शरीरादिच्छन्ति, केचिदनन्यम्, शाक्यास्तु केचिद् नैवान्यम्, नवाप्यनन्यम् / -चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org