Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 240 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गवरिज्ञा 241. जेहिं नारीण संजोगा पूयणा पिटुतो कता। सवमेयं निराकिच्चा ते ठिता सुसमाहिए // 17 // 240. जैसे वैतरणी नदी दुस्तर मानी गई है, इसी तरह इस लोक में कामिनियाँ अमतिमान (अविवेकी) साधक पुरुष के लिए दुस्तर मानी हैं। 241. जिन साधकों ने स्त्रियों के संसर्ग तथा पूजना (काम-विभूषा) से पीठ फेरली है, वे साधक इन समस्त उपसर्गों को निराकृत (पराजित) करके सुसमाधि (स्वस्थ चित्तवृत्ति में स्थित रहते हैं। विवेचन-स्त्रीसंसगरूप उपसर्ग : किसके लिए दुस्तर किसके लिए सुतर ?-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में से प्रथम गाथा में अविवेकी के लिए स्त्री संगरूप उपसर्ग दुस्तर बताया गया है जबकि द्वितीय गाथा में स्त्री संसर्ग एवं कामविभूषा के त्यागी साधकों को स्त्रीसंगरूप भयंकर उपसर्ग ही नहीं, अन्य समस्त उपसर्ग सुतर-सुजेय हो जाते हैं / 27 स्त्री संगरूप उपसर्ग कितना और कैसा दुस्तर ? - जैसे नदियों में वैतरणी नदी अत्यन्त प्रबल वेगवाली एवं विषमतट वाली होने से अतीव दुस्तर या दुर्लध्य मानी जाती है, वैसे ही पराक्रमहीन अविवेकी साधक के लिए स्त्री संसर्ग रूप उपसर्गनद का पार करना अत्यन्त दुस्तर है। बल्कि जो साधक विषय-लोलुप काम-भोगासक्त एवं स्त्रीसंग रूप उपसर्ग से पराजित हो जाते हैं. वे अंगारों पर पडी हई मछली की तरह कामराग, दृष्टिराग एवं स्नेहराग रूपी आग में जलते-तड़पते हुए अशान्त-असमाधिस्थ रहते हैं। इसी कारण बड़े-बड़े पहुंचे हुए साधकों के लिए भी स्त्री संग पर विजय पाना कठिन है / वे अपने आपको पहुँचे हुए पुराने साधक समझ कर इस अनुकूल स्त्रीसंगरूप उपसर्ग से असावधान रहते हैं, वे कामिनियों के कटाक्ष के आगे पराजित हो जाते हैं। वे चाहे शास्त्रज्ञ, प्रवचनकार, विद्वान् एवं क्रियाकाण्डी क्यों न हों, अगर वे इस उपसर्ग के आते ही तुरन्त इससे सावधान होकर नहीं खदेड देंगे तो फिर यह उपसर्ग उन पर भी हावी हो जाएगा। किसी अनुभवी ने ठीक ही कहा है सन्मार्गे तावदास्ते प्रभावति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणाम, लज्जा तावविधत्त, विनयमपि समालम्बते तावदेव / म चापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्षमाणा एते. यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति / / पुरुष तभी तक सन्मार्ग पर टिकता है, इन्द्रियों पर भी तभी तक प्रभुत्व (वश) रखता है, लज्जा भी तभी तक करता है, एवं विनय भी तभी तक करता है. जब तक स्त्रियों द्वारा भ्रकुटि रूपी धनुष को कान तक खींचकर चलाये हुए नीलीननियों वाले दष्टिबाण उस पर नहीं गिरे। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- 'जहा नदी वेयर णो दुत्तरा अमतीमता / ' 27 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 66 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org