Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 288 सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययम-मरकविभक्ति को सुन-समझकर इनसे बचे, हिंसादि पापों में प्रवृत्त न हो, और स्व-पर कल्याणरूप संयमसाधना में अहर्निश संलग्न रहे, यही इस अध्ययन का उद्देश्य है। D 'नरकविभक्ति' का एक अर्थ यह भी है-नरक के प्रकार, भूमियां उनकी लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई आदि विभिन्न नारकों की स्थिति, लेश्या, नरकों के विविध दुःख, दुःखप्रदाता नरकपाल आदि समस्त विषयों का विभाग रूप से जिस अध्ययन में निरूपण हो। - नरक सात हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, महातमःप्रभा / इनके सात रुढ़िगत नाम गोत्र हैं--घम्मा, वंशा, शेला, अंजना, अरिष्टा, मघा और माघवती। ये ही सात नरकभूमियाँ हैं, जो एक-दूसरी के नीचे असंख्य योजनों के अन्तर पर घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश के आधार पर स्थित हैं / वे नरकभूमियाँ क्रमशः 30 लाख, 25 लाख, 15 लाख, 10 लाख, पाँच कम एक लाख और पांच आवासों में विभक्त हैं। - नरकवासियों को उत्कष्ट स्थिति-नरक में क्रमशः 1, 3, 7, 10, 17, 22 और 33 सागरोपमकाल की स्थिति है। O नारकों को आकृति-प्रकृति-नारक जीवों की लेश्या, परिणाम, आकृति अशुभतर होती है, उनकी वेदना असह्यतर होती है, उनमें विक्रियाशक्ति होती हैं जिससे शरीर के छोटे-बड़े विविध रूप बना सकते हैं। 0 नरक में प्राप्त होने वाले विविध दुःख-मुख्यतया तीन प्रकार के हैं-(१) परस्परकृत / (2) क्षेत्र जन्य और (3) परमाधार्मिककृत / ' 0 नारकों को दुःख देने वाले परमाधार्मिक असुर--नरकपाल 15 प्रकार के हैं-(१) अम्ब, (2) अम्बर्षि, (3) श्याम, (4) सबल, (5) रौद्र, (6) उपरुद्र, (7) काल, (8) महाकाल, (6) असिपत्र, (10) धनुष, (11) कुम्भ, (12) बालु, (13) वैतरणी, (14) खरस्वर और (15) महाघोष / ये असुर स्वभाव से बड़े क्रूर होते हैं / ये नारकों को पूर्वकृत पापकर्म याद दिलाकर उन्हें विविध प्रकार से भयंकर यातना देते हैं। 0 सूत्रगाथा 300 से प्रारम्भ होकर 351 सूत्रगाथा पर पंचम अध्ययन समाप्त होता है। 8 (क) महारंभेण महापरिगहेण पंचेन्दियवहेणं कुणिमाहारेणं-स्था०४ (ख) 'बह्वारम्भ परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' -तत्त्वार्थ अ०३० 6 (क) सूत्रकृ० नियुक्ति गा० 68 से 84 तक (ख) सूत्रकृ० शी• वृत्ति पत्रांक 123 से 125 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org