Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 130 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (3) त्रसस्थावरयोनिक अप्काय-ये प्राणी त्रस और स्थावरों में उत्पन्न होते हैं / इनकी भी शेष समस्त प्रक्रिया पूर्ववत् है / (4) उदकयोनिक उदकों में उत्पन्न त्रसकाय-उदकयोनिक उदक पानी, बर्फ आदि में कीड़े आदि के रूप में कई जीव उत्पन्न हो जाते हैं। वे उसी प्रकार के होते हैं / अग्निकाय और वायुकाय की उत्पत्ति के चार-चार पालापक- (1) त्रसस्थावरयोनिक अग्निकाय (2) वायुयोनिक अग्निकाय, (3) अग्नियोनिक अग्निकाय, और (4) अग्नियोनिक अग्नि में उत्पन्न त्रसकाय / इसी प्रकार (1) सस्थावरयोनिक वायुकाय, (2) वायुयोनिक वायुकाय, (3) अग्नियोनिक वायुकाय एवं (4) वायुयोनिक वायुकाय में उत्पन्न त्रसकाय / त्रसस्थावरों के सचित्त-अचित्त शरीरों से अग्निकाय की उत्पत्ति-हाथी, घोड़ा, भैस आदि परस्पर लडते हैं, तब उनके सींगों में से आग निकलती दिखाई देती है। तथा अचित्त हडिडयों की रगड़ से तथा सचित्त-अचित्त वनस्पतिकाय एवं पत्थर आदि में से अग्नि की लपटें निकलती देखी जाती हैं। पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के चार पालापक-पृथ्वीकाय के यहाँ मिट्टी से लेकर सूर्यकान्त रत्न तक अनेक प्रकार बताए हैं / पृथ्वीकाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में चार आलापक-(१) त्रस-स्थावरप्राणियों के शरीर में उत्पन्न पृथ्वीकाय (2) पृथ्वीकाययोनिक पृथ्वीकाय, (3) वनस्पतियोनिकपृथ्वीकाय, और (4) पृथ्वीकाययोनिक पृथ्वीकाय में उत्पन्न त्रस / समुच्चयरूप से सब जीवों की अाहारादि प्रक्रिया और आहारसंयम-प्रेरणा ७४६--अहावरं पुरक्खातं सम्वे पाणा सन्दे भूता सव्वे जीवा सध्वे सत्ता नाणाविहजोणिया नाणाविहसंभवा नाणाविहवक्कमा सरीरजोणिया सरीरसंभवा सरीरवक्कमा सरीराहारा कम्मोवगा कम्मनिदाणा कम्मगतिया कम्मठितिया कम्मुणा चेव विप्परियासुर्वेति / ७४६-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में और भी बातें कही हैं। समस्त प्राणी, सर्व भूत, सर्व सत्त्व और सर्व जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते हैं, वहीं वे स्थिति रहते हैं, वहीं वृद्धि पाते हैं। वे शरीर से ही उत्पन्न होते हैं, शरीर में ही रहते हैं, तथा शरीर में ही बढ़ते हैं, एवं वे शरीर का ही अाहार करते हैं। वे अपने-अपने कर्म का ही अनुसरण करते हैं, कर्म ही उस-उस योनि में उनकी उत्पत्ति का प्रधान निमित्त कारण है। उनकी गति और स्थिति भी कर्म के अनुसार होती है। वे कर्म के ही प्रभाव से सदैव भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए दुःख के भागी होते हैं। ७४७–सेवमायाणह, सेवमायाणित्ता पाहारगुत्ते समिते सहिते सदा जए त्ति बेमि / ७४७-हे शिष्यो! ऐसा ही जानो, और इस प्रकार जान कर सदा आहारगुप्त, ज्ञान-दर्शनचारित्रसहित, समितियुक्त एवं संयमपालन में सदा यत्नशील बनो। -ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org