Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 782
________________ 200] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निर्ग्रन्थ–'हाँ, वे प्रवजित यावत् महावतारोपण करने योग्य हैं / ' श्री गौतमस्वामी-"क्या दीक्षा ग्रहण किये हुए तथाप्रकार के (उन समान समाचारी वाले) व्यक्तियों के साथ साधु को साम्भोगिक (परस्पर वन्दना, आसन प्रदान, अभ्युत्थान, आहारादि का आदान-प्रदान इत्यादि) व्यवहार करने योग्य हैं ?' निर्ग्रन्थ-'हाँ, करने योग्य है।' श्री गौतमस्वामी-'वे दीक्षापालन करते हुए चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक देशों में भ्रमण करके क्या पुनः गृहवास में जा सकते हैं ?" निर्ग्रन्थ–'हाँ, वे जा सकते हैं। श्री गौतमस्वामी-साधुत्व छोड़ कर गृहस्थपर्याय में पाए हुए वैसे व्यक्तियों के साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य है ?" निर्ग्रन्थ-"नहीं, अब उनके साथ वैसा व्यवहार नहीं रखा जा सकता।" श्री गौतमस्वामी-आयुष्मान् निर्ग्रन्थो! वह जीव तो वही है, जिसके साथ दीक्षाग्रहण करने से पूर्व साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित नहीं होता, और यह वही जीव है, जिसके साथ दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् साधु को सांभोगिक व्यवहार करना उचित (कल्पनीय) होता है, तथा यह वही जीव है, जिसने अब साधुत्व का पालन करना छोड़ दिया है, तब उसके साथ साधु को सांभोगिक व्यवहार रखना योग्य नहीं है। यह जीव पहले गृहस्थ था, तब अश्रमण था, बाद में श्रमण हो गया, और इस समय पुनः अश्रमण है। प्रश्रमण के साथ श्रमणनिर्ग्रन्थों को सांभोगिक व्यवहार रखना कल्पनीय (उचित) नहीं होता। निर्ग्रन्थो! इसी तरह इसे (यथार्थ) जानो, और इसी तरह इसे जानना चाहिए। विवेचन-निर्ग्रन्थों के साथ श्री गौतमस्वामी का संवाद-प्रस्तुत सूत्रत्रय में शास्त्रकार ने तीन दृष्टान्तात्मक संवाद प्रस्तुत किये हैं, जिनके द्वारा श्री गौतमस्वामी ने उदक आदि निर्ग्रन्थों को व्यावहारिक एवं धार्मिक दृष्टि से समझा कर तथा उन्हीं के मुख से स्वीकार करा कर त्रसकायवधप्रत्याख्यानी श्रावक के प्रत्याख्यान से सम्बन्धित उनकी भ्रान्ति का निराकरण किया है। तीन दृष्टान्तात्मक संवाद संक्षेप में इस प्रकार हैं (1) प्रथम संवाद का निष्कर्ष-कई मनुष्य ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं- “जो घरबार छोड़ कर अनगार बनेंगे, उनको हमें दण्ड देने (घात करने) का आजीवन त्याग है।" किन्तु गृहत्यागी अनगार बन जाने के बाद यदि वे कालान्तर में पुनः गृहवास करते हैं, तो पूर्वोक्त प्रतिज्ञावान् मनुष्य यदि वर्तमान में गृहस्थपर्यायप्राप्त उस (भूतपूर्व अनगार) व्यक्ति को दण्ड देता है तो उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं होती, वैसे ही जो श्रमणोपासक त्रसवध का प्रत्याख्यान करता है, वह वर्तमान में स्थावरपर्याय को प्राप्त (भूतपूर्व त्रस) प्राणी का वध करता है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। (2) द्वितीय संवाद का निष्कर्ष-कई गृहस्थ विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण करते हैं। दीक्षा ग्रहण से पूर्व उन्होंने समस्त प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं किया था, दीक्षाग्रहण के बाद उन्होंने सर्वप्राणिहिंसा का प्रत्याख्यान कर लिया, परन्तु कालान्तर में दीक्षा छोड़ कर पुनः गृहस्थावास में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847