Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 210] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी कहलाते हैं, त्रस भी तथा महाकाय भी एवं चिरस्थितिक भी होते हैं / अतः आपके द्वारा श्रमणोपासक के उक्त प्रत्याख्यान पर निविषयता का आक्षेप न्यायसंगत नहीं है। श्रमणोपासक द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण काल से लेकर मृत्युपर्यन्त त्याग किया है। वे प्राणी वहाँ से आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर छोड़ कर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादित भूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु निष्प्रयोजन दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होते हैं। अतः उन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक द्वारा किया हुआ प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। वे प्राणी भी हैं, यावत् दीर्घायु भी होते हैं। फिर भी आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है। [8] श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहणारम्भ से लेकर मरणपर्यन्त त्याग कर रखा है; वे प्राणी श्रायुष्यक्षय होने पर शरीर छोड़ देते हैं। शरीर छोड़ कर वे उसी श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भूमि के बाहर ही जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण से मृत्युपर्यन्त त्याग किया हुया है, उन्हीं में पुन: उत्पन्न होते हैं। अतः उन प्राणियों को लेकर श्रमणोपासक द्वारा किया गया प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। वे प्राणी भी कहलाते हैं, यावत् चिरकाल तक स्थिति वाले भी हैं। ऐसी स्थिति में आपका यह कथन कथमपि न्याययुक्त नहीं कि श्रमणोपासक का (पूर्वोक्त) प्रत्याख्यान निविषय है। ८६६-भगवं च णं उदाहु-ण एतं भूयं ण एतं भव्वं ण एतं भविस्सं जण्णं तसा पाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वोच्छिज्जिस्संति तसा पाणा भविस्संति, प्रबोच्छिण्णेहि तस-थावरेहिं पाणेहि जण्णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं वदहणस्थि णं से केइ परियाए जाव णो णेयाउए भवति / ___ ८६६--(अन्त में) भगवान गौतम ने कहा-(उदक निर्ग्रन्थ !) भूतकाल में ऐसा कदापि नहीं हुआ, न वर्तमान में ऐसा होता है और न ही भविष्यकाल में ऐसा होगा कि त्रस-प्राणी सर्वथा उच्छिन्न (समाप्त) हो जाएँगे, और सब के सब प्राणी स्थावर हो जाएँगे, अथवा स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएंगे और वे सब के सब प्राणी त्रस हो जाएंगे। (ऐसी स्थिति में) त्रस और स्थावर प्राणियों को सर्वथा उच्छेद न होने पर भी आपका यह कथन कि कोई ऐसा पर्याय (जीव की अवस्था) नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान (चरितार्थ एवं सफल) हो, यावत् आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है। विवेचन-दृष्टान्तों और युक्तियों द्वारा श्रमणोपासक-प्रत्याख्यान की निविषयता का निराकरण-प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 856 से 865 तक) में शास्त्रकार ने श्री गौतमस्वामी द्वारा प्रतिपादित विभिन्न पहलुओं से युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान की निविषयता के निराकरण एवं सविषयता की सिद्धि का निरूपण किया है। इन दस सूत्रों में श्रमणोपासकों के दस प्रकार के प्रत्याख्यानों का क्रमशः उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org