Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 204] [सूत्र तांगसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध फिर भी आप श्रावक के प्रत्याख्यान को निविषय बतलाते हैं / आपका यह मन्तव्य न्याययुक्त महीं है। ८५६-भगवं च णं उयाहु-संतेतिया मणुस्सा भवंति अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुआ जाव सव्वानो परिग्गहातो पडिविरया जावज्जीवाए जेहि समणोवासगस्त प्रादाणसो प्रामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो पाउगं विष्पजहंति, ते ततो भुज्जो सगमादाए सोग्गतिगामिणो भवंति, ते पाणा वि बुच्चंति जाव णो णेयाउए भवति / ८५६-भगवान् श्री गौतम आगे कहने लगे—इस विश्व में ऐसे भी शान्तिप्रधान मनुष्य होते हैं, जो प्रारम्भ एवं परिग्रह से सर्वथा रहित हैं, धार्मिक हैं, धर्म का अनुसरण करते हैं या धर्माचरण करने की अनुज्ञा देते हैं। वे सब प्रकार के प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से तीन करण; तीन योग से जीवनपर्यन्त विरत रहते हैं। उन प्राणियों (महाव्रती मिष्ठ उच्च साधकों) को दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से लेकर मरणपर्यन्त प्रत्याख्यान किया है / वे (पूर्वोक्त मिष्ठ उच्च साधक) काल का अवसर आने पर अपनी आयु (देह) का त्याग करते हैं, फिर वे अपने पुण्य (शुभ) कर्मों को साथ लेकर स्वर्ग आदि सुगति को प्राप्त करते हैं, (वे उच्चसाधक श्रमणपर्याय में भी त्रस थे और अब देवादिपर्याय में भी त्रस हैं;) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, और महाकाय तथा (देवलोक में) चिरस्थितिक भी होते हैं / (उन्हें भी श्रमणोपासक दण्ड नहीं देता) अतः अापका यह कथन न्यायसंगत नहीं है कि त्रस के सर्वथा अभाव के कारण श्रमणोपासक का उक्त व्रत-प्रत्याख्यान निविषय हो जाता है। ८६०–भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा–प्रप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाब एगच्चातो परिग्गहातो अप्पडिविरया जेहि समणोवासगस्स प्रायाणसो अामरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो पाउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता भुज्जो सगमादाए सोग्गतिगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुच्चंति जाव णो याउए भवति / ८६०-भगवान् श्री गौतमस्वामी ने (अपने सिद्धान्त को स्पष्ट समझाने के लिए प्रागे) कहा-'इस जगत् में ऐसे भी मानव हैं, जो अल्प इच्छा वाले, अल्प प्रारम्भ और परिग्रह वाले, धार्मिक, और धर्मानुसारी अथवा धर्माचरण की अनुज्ञा देने वाले होते हैं, वे धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं, धर्माचरण ही उनका व्रत होता है, वे धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं, धर्म करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं, वे प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक, एक देश से विरत होते हैं, और एक देश से विरत नहीं होते, (अर्थात्-वे स्थूल प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करते हैं।) इन (पूर्वोक्त) अणुवती श्रमणोपासकों को दण्ड देने का प्रत्याख्यान श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण करने के दिन से मरणपर्यन्त किया होता है / वे (अणुव्रती) काल का अवसर प्राने पर अपनी आयु (या देह) को छोड़ते हैं और अपने पुण्यकर्मों को साथ लेकर (परलोक में) सद्गति को प्राप्त करते हैं / (इस दृष्टि से वे पहले अणुव्रती मानव थे, तब भी त्रस थे और देवगति में अब देव बने, तब भी त्रस ही हुए) वे प्राणी भी कहलाते हैं, बस और महाकाय भी कहलाते हैं, तथा चिरस्थितिक भी होते हैं। अतः श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान त्रसजीवों की इतनी अधिक संख्या होने से निविषय नहीं है, आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org