Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अणायारसुतं : पंचमं अज्झयणं अनाचारश्रुत : पंचम अध्ययन अनाचरणीय का निषेध७५४–प्रादाय बंभचेरं च, प्रासुपण्णे इमं वय / अस्सिं धम्मे प्रणायारं, नायरेज्ज कयाइ वि // 1 // ७५४-याशुप्रज्ञ (सत्-असत् को समझने में कुशाग्रबुद्धि) साधक इस अध्ययन के वाक्य तथा ब्रह्मचर्य (ब्रह्म-आत्मा से सम्बन्धित प्राचार-विचार में विचरण) को धारण करके इस (वीतरागप्ररूपित सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयरूप) धर्म में अनाचार (मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्ररूप अनाचरणीय बातों) का आचरण कदापि न करे / विवेचन--अनाचरणीय का निषेध-प्रस्तुत सूत्रगाथा में शास्त्रकार ने प्रस्तुत अध्ययन के सारभूत चार तथ्यों की ओर साधकों का ध्यान खींचा है / वे चार तथ्य इस प्रकार हैं (1) वीतरागप्ररूपित रत्नत्रयरूप धर्म में प्रवजित साधक सत्यासत्य को समझने में कुशाग्रबुद्धि हो। (2) प्रस्तुत अनाचारश्रुत अध्ययन के वाक्यों को हृदयंगम करे / (3) ब्रह्मचर्य (आत्मा से सम्बन्धित प्राचार-विचार) को जीवन में धारण करे / (4) मिथ्यादर्शनादित्रयरूप अनाचरणीय बातों का आचरण कदापि न करे / ' ब्रह्मचर्य--प्रस्तुत प्रसंग में ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ फलित होते हैं(१) सत्य, तप, इन्द्रियनिग्रह एवं सर्वभूतदया, ये चारों ब्रह्म हैं, इनमें विचरण करना। (2) आत्मा से सम्बन्धित चर्या-प्राचारविचार / (3) ब्रह्म (वीतराग परमात्मा) द्वारा प्ररूपित आगमवचन या प्रवचन अर्थात् (जैनेन्द्रप्रवचन)। अनाचार-प्रस्तुत प्रसंग में अनाचार का अर्थ केवल सम्यक् चारित्रविरुद्ध आचरण ही नहीं है, अपितु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के विरुद्ध अाचरण करना अनाचार है। धर्म- वीतरागप्ररूपित एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग के उपदेशक जैनेन्द्रप्रवचन को ही प्रस्तुत प्रसंग में धर्म समझना चाहिए। 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 371 / 2. वही, पत्रांक 371 में उद्धृत सत्यं ब्रह्म, तपो ब्रह्म, ब्रह्म इन्द्रियनिग्रहः / सर्वभूतदया ब्रह्म, एतद् ब्रह्मलक्षणम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org