Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ८२२-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए नितिए भिक्खुयाणं / असंजए लोहियपाणि से ऊ, णिगच्छती गरहमिहेव लोए // 36 // 822. जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार स्नातक भिक्षुत्रों को (पूर्वोक्त मांसपिण्ड का) भोजन कराता है, वह असंयमी रक्त से रंगे हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दापात्र होता है। ८२३-थूलं उरन्भं इह मारियाणं, उद्दिट्ठभत्तं च पकप्पइत्ता। तं लोणतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पकरेंति मंसं // 37 // ८२४--तं भुजमाणा पिसितं पभूतं, न उवलिप्पामो वयं रएणं / इच्चेवमासु प्रणज्जधम्मा, अणारिया बाल रसेसु गिद्धा // 38 // 823-824. आपके मत में बुद्धातुयायी जन एक बड़े स्थल भेड़े को मार कर उसे बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के उद्देश्य से कल्पित कर (बना कर) उस (भेड़े के मांस) को नमक और तेल के साथ पकाते हैं, फिर पिप्पली आदि द्रव्यों (मसालों) से बधार कर तैयार करते हैं / (यह मांस बौद्धभिक्षुत्रों के भोजन के योग्य समझा जाता है, यही उनके पाहार ग्रहण की रीति है / ) अनार्यों के-से स्वभाव वाले अनार्य (कर्मकारक), एवं रसों में गद्ध (लुब्ध) वे अज्ञानी बौद्धभिक्षु कहते हैं कि (इस प्रकार से बना हुमा) बहुत-सा मांस खाते हुए भी हम लोग पापकर्म (रज) से लिप्त नहीं होते। ८२५–जे यावि भुजंति तहप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाणा। मणं न एवं कुसला करेंति, वाया वि एसा बुइता तु मिच्छा // 36 // 825. जो लोग इस प्रकार के मांस का सेवन करते हैं, वे (पुण्य-पाप के) तत्त्व को नहीं जानते हुए पाप का सेवन करते हैं / जो पुरुष कुशल (तत्त्वज्ञान में निपुण) हैं, वे ऐसे मांस खाने की इच्छा भी नहीं करते (मन में भी नहीं लाते)। मांस भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है। ८२६–सम्वेसि जीवाणा दयट्ठयाए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता। तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता, उद्दिभत्तं परिवज्जयंति // 40 // 826. समस्त जीवों पर दया करने के लिए, सावद्यदोष से दूर रहने वाले तथा (आहारादि में) सावध (पापकर्म) की आशंका (छानबीन) करने वाले, ज्ञातपुत्रीय (भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य) ऋषिगण उद्दिष्ट भक्त (साधु के निमित्त प्रारम्भ करके तैयार किये हुए भोजन) का त्याग करते हैं। ८२७-भूताभिसंकाए दुगुछमाणा, सम्वेसि पाणाणमिहायदंडं / तम्हा ण भुजति तहप्पकारं, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं // 41 // 827. प्राणियों के उपमर्दन को आशंका से, सावद्य अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निम्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org