Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 831, 32] [179 ८३१--दयाप्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप (शासक) एक भी कुशील ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह अन्धकारयुक्त नरक में जाता है, फिर देवों (देवलोकों) में जाने की तो बात ही क्या है ? विवेचन-पशवध समर्थक मांसभोजी ब्राह्मणों को भोजन : शंका-समाधान-प्रस्तुत तीन सूत्र गाथाओं में प्रार्द्र क कुमार के समक्ष ब्राह्मणों के द्वारा प्रस्तुत मन्तव्य एवं पार्द्रक-कुमार द्वारा किया गया उसका प्रतिवाद अंकित है। ब्राह्मण-मन्तव्य–'प्रतिदिन दो हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने वाला पुण्यशाली व्यक्ति देव बनता है।' पाक द्वारा प्रतिवाद-(१) बिल्ली जैसी वत्ति वाले तथा मांसादि भोजन के लिए क्षत्रियादि कुलों में घूमने वाले दो हजार शील-विहीन ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराने वाला यजमान मांसलुब्धप्राणियों से परिपूर्ण अप्रतिष्ठान नरक में जाता है। जहाँ परमाधार्मिक नरकपालों द्वारा तीव्र यातना दी जाती है / (2) एक भी कुशील व्यक्ति को भोजन कराने वाला हिंसाप्रधान धर्म का प्रशंसक राजा तामस नरक में जाता है, देवलोक में जाने की बात कहाँ।' ब्राह्मणों को भोज और नरकगमन का रहस्य-उस युग में ब्राह्मण यज्ञ-यागादि में पशुवध करने की प्रेरणा देते थे, और स्वयं भी प्रायः मांसभोजी थे। मांसभोजन आदि की प्राप्ति के लिए वे क्षत्रिय आदि कुलों में घूमा करते थे। प्राचार से भी शिथिल हो गए थे। इसलिए ऐसे दाम्भिक ब्राह्मणों को भोजन कराने वाले, मांसमय भोजन करने-कराने वाले व्यक्ति को नरकगामी बताया है / मनुस्मृति आदि वैदिक धर्मग्रन्थों में भी वैडालवृत्तिक हिंसाप्रेरक ब्राह्मणों को भोजन कराने वाले तथा करने वाले दोनों को नरकगामी बताया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी ऐसे कुमार्गप्ररूपक पशुवधाादिप्रेरक ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल नरकगति बताया है। सांख्यमतवादो एकदण्डिकों के साथ तात्त्विक चर्चा ८३२-दुहतो वि धम्मम्मि समुट्टिया मो, अस्सिं सुठिच्चा तह एसकालं / __ अायारसीले वुइए[s]ह नाणे, ण संपरायंसि विसेसमत्थि // 46 // 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 400 का सारांश 2. (क) 'धर्मध्वजी सदालुब्धः छामिको लोकदम्भकः / वैडालवृत्तिक: ज्ञेयो हिस्र: सर्वाभिसंधिकः / ..."ये बकवतिनो विप्राः ये च मारिलिगिनः / ते पतन्त्यन्धतामिस्र, तेन पापेन कर्मणा // न वायपि प्रयच्छेत्त वडालतिके द्विजे / न बकवतिके विप्रनावेदविदि धर्मवित् / / ...." - मनुस्मृति अ. 4, श्लोक 95,97,98 (ख) ते हि भोजिता कुमार्गप्ररूपण --पशुवधादावेव कर्मोपचय-निबन्धनेऽशुभव्यापारे प्रवर्तन्ते, इत्यसत्प्रवर्तन तस्तभोजनस्य नरकगतिहेत त्वमेव ।'–उत्तराध्ययन अ.१४, गा. 12 टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org