Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 192] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाठान्तर और व्याख्यान्तर---'कुमारपुत्तिया नाम समणा' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'कम्मारउत्तिया णाम समणोवासगा', व्याख्या यों है--जो कर्म (शिल्प) करता है, वह कर्मकार (शिल्पी) है, कर्मकार के पुत्र कर्मकारपुत्र और कर्मकारपुत्र की संतान कर्मकारपुत्रीय हैं, इस नाम के श्रमणोपासक / 'अणुतावियं' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर 'अणगामियं' है, जिसका अर्थ होता है--'संसारानुगामिनी' / 'णो देसे...' के बदले पाठान्तर–णो उवएसे' है, अर्थ होता है--देश का अर्थ उपदेश है या दृष्टि है / 'णेयाउनो' मोक्ष के प्रति ले जाने वाला या न्याययुक्त / ' उदकनिम्रन्थ द्वारा पुनः प्रस्तुत प्रश्न और गौतमस्वामी द्वारा प्रदत्त सटीक उत्तर ८४८-सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वदासी–कयरे खलु पाउसंतो गोतमा ! तुब्भे वयह तसपाणा तसा पाउमण्णहा ? सवायं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी-प्राउसंतो उदगा ! जे तुम्भे क्यह तसभूता पाणा तसभूता पाणा ते वयं वयामो तसा पाणा तसा पाणा, जे वयं वयामो तसा पाणा तसा पाणा, ते तुम्भे वयह तसभूता पाणा तस मूता पाणा, एते संति दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा, किमाउसो ! इमे भे सुष्पणीयतराए भवति तसभूता पाणा, तसमूता पाणा, इमे मे दुष्पणीयतराए भवति-तसा पाणा तसा पाणा? भी एगमाउसो! पडिकोसह, एक्कं अभिणंदह, अयं पि भे देसे णो णेयाउए भवति / ८४८--(इसके पश्चात्) उदक पेढालपुत्र ने (वादसहित या) सद्भावयुक्त वचनपूर्वक भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-"अायुष्मन् गौतम ! वे प्राणी कौन-से हैं, जिन्हें आप त्रस कहते हैं ? आप त्रस प्राणी को ही त्रस कहते हैं, या किसी दूसरे को ?" इस पर भगवान् गौतम ने भी सद्वचनपूर्वक (या सवाद) उदक पेढालपुत्र से कहा-"आयुष्मन् उदक ! जिन प्राणियों को आप त्रसभूत कहते हैं, उन्हीं को हम सप्राणी कहते हैं और हम जिन्हें त्रसप्राणी कहते हैं, उन्हीं को श्राप त्रसभूत कहते हैं / ये दोनों ही शब्द एकार्थक हैं / फिर क्या कारण है कि आप अायुष्मान् सप्राणी को 'त्रसभूत' कहना युक्तियुक्त (शुद्ध या सुप्रणीततर) समझते हैं, और त्रसप्राणी को 'बस' कहना युक्तिसंगत (शुद्ध सुप्रणीततर) नहीं समझते; जबकि दोनों समानार्थक हैं। ऐसा करके आप एक पक्ष की निन्दा करते हैं और एक पक्ष का अभिनन्दन (प्रशंसा करते हैं / अतः आपका यह (पूर्वोक्त) भेद न्यायसंगत नहीं है / ___८४६-भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति-नो खलु वयं संचाएमो मुडा भवित्ता अगारातो अणगारियं पन्धइत्तए, वयं णं अणुपुव्वेणं गुत्तस्स 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति 410 से 413 तक (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू. पा. टिप्पण) पृ-२३८-२३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org