Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 194] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध स्वामी द्वारा प्रदत्त उत्तर अंकित है-(१) जिसे आप 'त्रसभूत' कहते हैं, उसे ही हम त्रस कहते हैं। अथवा जिसे हम बस कहते हैं, उसे ही आप त्रसभूत कहते हैं। दोनों एकार्थक हैं / (2) अत: जो गृहस्थ अपनी शक्ति और परिस्थितिवश सिर्फ त्रसकायघात का प्रत्याख्यान करना चाहता है, और साधु जितने प्राणियों की हिंसा से निवृत्त हो उतना ही अच्छा समझकर त्रस-प्राणिहिंसा का त्याग करता है / ऐसी स्थिति के उस साधु को शेष (स्थावर) प्राणियों के घात का अनुमोदक नहीं कहा जा सकता। (3) अस या स्थावर जो भी प्राणी एक दूसरी जाति में उत्पन्न होते हैं, वे अपने-अपने उदय प्राप्त नामकर्म का फल भोगने के लिए अपनी कायस्थिति, आयु आदि क्षीण होने पर कभी त्रसपर्याय को छोड़ कर स्थावरपर्याय में और कभी स्थावरपर्याय को छोड़कर सपर्याय में आते हैं / इससे त्रसजीवों की हिंसा का त्याग किये हुए श्रावक का व्रतभंग नहीं होता।' श्री गौतमस्वामी का स्पष्ट उत्तर-जो प्राणी वर्तमान में सपर्याय में हैं, वे भले ही स्थावरपर्याय में से पाए हों, उनकी हिंसा का त्याग श्रावक करेगा। परन्तु जो त्रस से स्थावर हो गए हैं, उनकी तो पर्याय ही बदल गई है, उनकी हिंसा से श्रावक का उक्त व्रतभंग नहीं होता।' त्रस ही क्यों और कहाँ तक-उदक निम्रन्थ के 'त्रसभूत पद क्यों नहीं ? तथा त्रस कहां तक कहा जाए ?' इन प्रश्नों का उत्तर 'णामं च णं प्रभुवगतं भवति' तथा 'तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवति' इन दो वाक्यों में आ जाता है। प्रथम उत्तरवाक्य का प्राशय है-लौकिक और लोकोत्तर दोनों में त्रस नाम ही माना जाता है, त्रसभूत नहीं, तथा जहाँ तक त्रस का आयु (कर्म) क्षीण नहीं हुआ है, वह उत्कृष्ट 33 सागरोपम तक एकभव की दृष्टि से सम्भव है, वहां तक वह त्रस ही रहता है, अस-पायु (कर्म) क्षीण होने पर अर्थात् त्रस की कायस्थिति समाप्त हो जाने पर उसकी त्रस-पर्याय बदल सकती है / उदक की आक्षेपात्मक शंका : गौतम का स्पष्ट समाधान-- ८५१--सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वदासी-पाउसंतो गोतमा ! नत्थि णं से केइ परियाए जण्णं समणोवासगस्स एगपाणातिवायविरए वि दंडे निक्खित्ते, कस्स गं तं हेतु? संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसा वि पाणा यावरत्ताए पच्चायंति, थावरकायातो विप्पमुच्चमाणा सब्वे तसकायंसि उववज्जति, तसि च णं थावरकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं धत्तं। ८५१--(पुन:) उदक पेढालपुत्र ने वाद (युक्ति) पूर्वक भगवान गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा--आयुष्मन् गौतम ! (मेरी समझ से) जीव की कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जिसे दण्ड न दे कर श्रावक अपने एक भी प्राणी के प्राणतिपात से विरतिरूप प्रत्याख्यान को सफल कर सके ! उसका कारण क्या है ? (सुनिये) समस्त प्राणी परिवर्तनशील हैं, (इस कारण) कभी स्थावर प्राणी भी त्रसरूप में उत्पन्न हो जाते हैं और कभी त्रसप्राणी स्थावररूप में उत्पन्न हो जाते हैं / (ऐसी स्थिति ..... 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 412-413 का सारांश 2. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 414 का तात्पर्य 3. सूत्रकृतांग चूणि (भू. पा. टिप्पण) पृ. 240-241 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org