Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 775
________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 850] [193 लिसिस्सामो, ते एवं संखं सावेंति, ते एवं संखं ठवयंति, ते एवं संखं सोवाढवयंति--नन्नत्थ अमिजोएणं गाहावतीचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहि निहाय दंडं, तं पि तेसि कुसलमेव भवति / ___८४६–आगे भगवान् गौतमस्वामी ने उदक पेढालपुत्र से कहा-आयुष्मन् उदक ! जगत् में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, जो साधु के निकट आ कर उनसे पहले ही इस प्रकार कहते हैं-"भगवन् ! हम मुण्डित हो कर अर्थात्-समस्त प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा लेकर गृहत्याग करके प्रागार धर्म से अनगारधर्म में प्रवजित होने (दीक्षा लेने) में अभी समर्थ नहीं हैं, किन्तु हम क्रमशः साधुत्व (गोत्र) का अंगीकार करेंगे, अर्थात्-पहले हम स्थूल (त्रस) प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करेंगे, उसके पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात (सर्व सावद्य) का त्याग करेंगे। तदनुसार वे मन में ऐसा ही निश्चय करते हैं और ऐसा ही विचार प्रस्तत करते हैं। तदनन्तर वे राजा अादि के अभियोग का आगार (छूट) रख कर गृहपति-चोर-विमोक्षणन्याय से त्रसप्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं। [प्रत्याख्यान कराने वाले निर्ग्रन्थ श्रमण यह जान कर कि यह व्यक्ति समस्त सावद्यों को नहीं छोड़ता है, तो जितना छोड़े उतना ही अच्छा है, उसे त्रसप्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान कराते हैं। वह (त्रस-प्राणिवध का) त्याग भी उन (श्रमणोपासकों) के लिए अच्छा (कुशलरूप) ही होता है। ८५०–तसा वि वुच्चंति तसा तससंभारकडेण कम्मुणा, णामं च णं प्रभवगतं भवति, तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवति, तसकायद्वितीया ते ततो पाउयं विप्पजहंति, ते तो पाउयं विष्पजहित्ता थायरत्ताए पच्चायति / थावरा वि वुच्चंति थावरा थावरसंभारकडेणं कम्मुणा, णाम च णं अभुवगतं भवति, थावराउं च णं पलिक्खीणं भवति, थावरकायद्वितीया ते ततो पाउगं विप्पजहंति, ते ततो पाउगं विष्पजहिता भुज्जो परलोइयत्ताए पच्चायंति, ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वच्चंति, ते महाकाया, ते चिरद्वितीया / ८५०--(द्वीन्द्रिय आदि) त्रस जीव भी त्रस सम्भारकृत कर्म (सनामकर्म के अवश्यम्भावी विपाक) के कारण त्रस कहलाते हैं। और वे त्रसनामकर्म के कारण ही असनाम धारण करते हैं। और जब उनकी त्रस की आयु परिक्षीण हो जाती है तथा त्रसकाय में स्थितिरूप (रहने का हेतुरूप) कर्म भी क्षीण हो जाता है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं; और त्रस का आयुष्य छोड़ कर वे स्थावरत्त्व को प्राप्त करते हैं। स्थावर (पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय) जीव भी स्थावरसम्भारकृत कर्म (स्थावरनामकर्म के अवश्यम्भावी विपाक-फलभोग) के कारण स्थावर कहलाते हैं; और वे स्थावरनामकर्म के कारण ही स्थावरनाम धारण करते हैं और जब उनकी स्थावर की आयु परिक्षीण हो जाती है, तथा स्थावरकाय में उनकी स्थिति की अवधि पूर्ण हो जाती है, तब वे उस आयुष्य को छोड़ देते हैं / वहाँ से उस आयु (स्थावरायु) को छोड़ कर पुनः वे त्रसभाव को प्राप्त करते हैं। वे जीव प्राणो भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, वे महाकाय (विशाल शरीर वाले) भी होते हैं और चिरकाल तक स्थिति वाले भी। विवेचन--उदक निम्रन्थ द्वारा पुनः प्रस्तुत प्रश्न और गौतम स्वामी द्वारा प्रदत्त उत्तरप्रस्तुत सूत्रत्रय में से प्रथम सूत्र में उदकनिम्रन्थ द्वारा पुनः एक ही प्रश्न दो पहलुओं से प्रस्तुत किया है-(१) त्रस किसे कहते हैं ? (2) त्रसप्राणी को ही या अन्य को? शेष दोनों सूत्रों में श्री गौतम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847