Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ - अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन : सूत्र 781 ] [ 157 पदार्थ नहीं, एकमात्र पाप ही है / पाप कम हो जाने पर, सुख उत्पन्न करता है, अधिक हो जाने पर - दुःख, दूसरे दार्शनिक कहते हैं—जगत् में पाप नाम का कोई पदार्थ नहीं है, एकमात्र पुण्य ही है। पुण्य घट जाता है, तब वह दुःखोत्पत्ति, और बढ़ जाता है तब सुखोत्पत्ति करता है। तीसरे मतवादी कहते हैं-पुण्य या पाप दोनों ही पदार्थ मिथ्या हैं, क्योंकि जगत् की विचित्रता नियति, स्वभाव आदि के कारण से होती है। वस्तुत: ये दार्शनिक भ्रम में हैं, पुण्य और पाप दोनों का नियत सम्बन्ध है, एक का अस्तित्व मानने पर दूसरे का अस्तित्व मानना ही पड़ेगा। यदि सब कुछ नियति या स्वभाव आदि से होने लगे, तो क्यों कोई सत्कार्य में प्रवृत्त होगा? फिर तो किसी को शुभ-अशुभ क्रिया का फल भी प्राप्त नहीं होगा / परन्तु ऐसा होता नहीं। अतः पुण्य और पाप दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानना ही ठीक है। (6) पाश्रव और संवरजिसके द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं, अर्थात् जो बन्ध का कारण है, वह (प्राणातिपात आदि) आश्रव है, और उस आश्रव का निरोध करना संवर है। ये दोनों पदार्थ / अवश्यम्भावी हैं, शास्त्रसम्मत भी / किसी दार्शनिक ने आश्रव और संवर दोनों को मिथ्या बताते हए तर्क उठाया है कि यदि प्राश्रव प्रात्मा से भिन्न हो तो वह घटपटादि पदार्थों की तरह आत्मा में कर्म बन्ध का कारण नहीं हो सकता। यदि वह आत्मा से अभिन्न हो तो मुक्तात्माओं में भी उसकी सत्ता माननी पड़ेगी, ऐसा अभीष्ट नहीं / अतः पाश्रव की कल्पना मिथ्या है / जब आश्रव सिद्ध नहीं हुआ तो उसका निरोधरूप संवर भी नहीं माना जा सकता। कार ने इसका निराकरण करते हए कहा--"पाश्रव का अस्तित्व न मानने से सांसारिक जीवों की विचित्रता सिद्ध नहीं हो सकती और संवर न मानने से कर्मों का निरोध घटित नहीं हो सकता / अतः दोनों का अस्तित्व मानना ही उचित है / आश्रव संसारी आत्मा से न तो सर्वथा भिन्न है, न सर्वथा अभिन्न / पाश्रव और संवर दोनों को आत्मा से कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न मानना ड़ी न्यायोचित है। (7) वेदना और निर्जरा-कर्म का फल भोगना 'वेदना' है और कर्मों का प्रात्मप्रदेशों से झड़ जाना 'निर्जरा' है। : कुछ दार्शनिक कहते हैं—'ये दोनों पदार्थ नहीं हैं; क्योंकि प्राचार्यों ने कहा है-'अज्ञानी पुरुष जिन कर्मों का अनेक कोटि वर्षों में क्षय करता है, उन्हें त्रिगुप्तिसम्पन्न ज्ञानीपुरुष एक उच्छवासमात्र में क्षय कर डालता है।' इस सिद्धान्तानुसार सैकड़ों पल्योपम एवं सागरोपम काल में भोगने योग्य कर्मों का भी (बिना भोगे ही) अन्तर्मुहूर्त में क्षय हो जाता है, अतः सिद्ध हुआ कि क्रमशः बद्धकर्मों का वेदन (फलभोग) क्रमश: नहीं होता, अतः 'वेदना' नाम का कोई तत्त्व मानने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार वेदना का अभाव सिद्ध होने से निर्जरा का अभाव स्वत: सिद्ध है।" परन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता / तपश्चर्या और प्रदेशानुभव के द्वारा कतिपय कर्मों का ही क्षपण होता है, समस्त कर्मों का नहीं। उन्हें तो उदीरणा और उदय के द्वारा 1. "जं अन्नाणी कम्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहि / तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेह, ऊसासमित्तण // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org