Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 160 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्य नहीं होती। अतः सिद्ध जीव जहाँ स्थित रहते हैं, उसे सिद्धि स्थान कहा जाता है / ' कुछ दार्शनिक कहते हैं—मुक्त पुरुष आकाश के समान सर्वव्यापक हो जाते हैं, उनका कोई एक स्थान नहीं होता, परन्तु यह कथन युक्ति-प्रमाणविरुद्ध है। आकाश तो लोक-अलोक दोनों में व्याप्त है / अलोक में तो आकाश के सिवाय कोई पदार्थ रह नहीं सकता, मुक्तात्मा लोकमात्रव्यापक हो जाता है इसमें कोई प्रमाण नहीं / सिद्ध जीव में ऐसा कोई कारण नहीं कि वह शरीरपरिमाण को त्याग कर समस्त लोकपरिमित हो जाए। (14) साधु और प्रसाधु-स्व-परहित को सिद्ध करता है, अथवा प्राणातिपात आदि 18 पापस्थानों से विरत होकर सम्यग्दर्शनादिचतुष्टयरूप मोक्षमार्ग की या पंचमहाव्रतों की साधना करता है, वह साधु है ! जिसमें साधुता नहीं है, वह असाधु है। अतः जगत् में साधु भी हैं, असाधु भी हैं, ऐसा मानना चाहिए। कई लोग कहते हैं---"रत्नत्रय का पूर्णरूप से पालन असम्भव होने से जगत् में कोई साधु नहीं है / जब साधु ही नहीं तो उसका प्रतिपक्षी असाधु भी नहीं हो सकता।" यह मान्यता उचित नहीं है / विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिए। जो साधक सदा यतनापूर्वक समस्त प्रवृत्ति करता है, 'सुसंयमी चारित्रवान् है, शास्त्रोक्तविधि से शुद्ध निर्दोष आहार लेता है, ऐसे सुसाधु से कदाचित् भूल से अनजान में अनेषणीय अशुद्ध आहार ले भी लिया जाए तो भी सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का अपूर्ण अाराधक नहीं, अपनी शुद्ध दृष्टि से वह पूर्ण पाराधक हैं, क्योंकि वह शुद्धबुद्धि से, भावनाशुद्धिपूर्वक शुद्ध समझ कर उस आहार को ग्रहण करता है। इससे वह असाधु नहीं हो जाता, सुसाधु ही रहता है / भक्ष्याभक्ष्य, एषणीय-अनेषणीय, प्रासुक-अप्रासुक आदि का विचार करना राग-द्वेष नहीं, अपितु चारित्रप्रधान मोक्ष का प्रमुख अंग है / इससे साधु की समता (सामायिक) खण्डित नहीं होती। इस प्रकार साधु का अस्तित्व सिद्ध होने पर उसके प्रतिपक्षी असाधु के अस्तित्व की भी सिद्धि हो जाती है। (15) कल्याण और पाप अथवा कल्याणवान् और पापवान्-अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति को कल्याण और हिंसा आदि को पाप कहते हैं, जिसमें ये हों, उन्हें क्रमशः कल्याणवान् तथा पापवान् 1. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 380 से 382 तक (ख) दोषावरणयोहानि निःशेषाऽस्त्यतिशायिनी / __ क्वचिद् यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः / / (ग) 'कर्मविमुक्तस्योवंगतिः' (घ) लाउ एरंडफले अग्गी धूमे य उसु धणुविमुक्के / गइ पुज्वपओगेणं एवं सिद्धाण वि गई प्रो॥ उच्चालियम्मि पाए ईरियासमियरस संकमट्ठाए। बावज्जिज्ज कुलिंगी, मरिज वा तं जोगमासज्ज / ण य तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिनो समए / -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 381-382 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org