Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 753
________________ . आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 804.806] [170 ८०४---सर्वज्ञ (प्राशुप्रज्ञ) भगवान महावीर स्वामी वहाँ (श्रोताओं के पास जाकर अथवा न जाकर समभाव से धर्मोपदेश करते हैं / परन्तु अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं, इस आशंका से भगवान् उनके पास नहीं जाते। विवेचन-भीर होने का प्राक्षेप और समाधान प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (801 से 804 तक) में से दो गाथाओं में गोशालक द्वारा भगवान् महावीर पर भीरु होने का आक्षेप है, और शेष दो गाथाओं में पाक मुनि द्वारा अकाट्य युक्तियों द्वारा किया गया समाधान अंकित है। गोशालक के आक्षेप : महावीर भय एवं राग-द्वेष से युक्त--(१) वे इस भय से सार्वजनिक स्थानों में नहीं ठहरते कि वहाँ कोई योग्य शास्त्रज्ञ विद्वान् कुछ पूछ बैठेगा, तो क्या उत्तर दूंगा? आर्द्र कमनि द्वारा समाधान--(१) भगवान् महावीर अकुतोभय हैं और सर्वज्ञ हैं, इसलिए किसी भी स्थान में ठहरने या न ठहरने में उन्हें कोई भय नहीं है। वे न राजा के भय से कोई कार्य करते हैं, न किसी अन्य प्राणी का उन्हें भय है। किन्तु वे निष्प्रयोजन कोई कार्य नहीं करते, और न ही बालकों की तरह बिना विचारे कोई कार्य करते हैं। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं इसलिए उन्हें जिससे दूसरे का उपकार होता दिखता है, वही कार्य वे करते हैं। अपने उपकार से दूसरे का कोई हित होता नहीं देखते वहाँ वे उपदेश नहीं करते / प्रश्नकर्ता का उपकार देख कर भगवान उनके प्रश्न का उत्तर देते हैं, अन्यथा नहीं देते / वे स्वतन्त्र हैं, पूर्वोपाजित तीर्थकर नामकर्म का क्षय करने तथा आर्यपुरुषों के उपकार के लिए धर्मोपदेश करते हैं। चाहे चक्रवर्ती हो या दरिद्र, यदि वह भव्य हो, और उपकार होता ज्ञात हो तो वे किसी पक्षपात के बिना वहाँ जा कर भी समभाव से उपदेश देते हैं / अन्यथा, वहाँ रह कर भी उपदेश नहीं देते / इसलिए उनमें राग-द्वेष की गन्ध भी नहीं है।' गोशालक द्वारा प्रदत्त वरिणक की उपमा का पाक द्वारा प्रतिवाद ८०५-पण्णं जहा वणिए उदयट्टी, प्रायस्स हेउं पगरेंति संगं / तउवमे समणे नायपुत्ते, इच्चेव मे होति मती वियवका // 19 // ८०५-(गोशालक ने फिर कहा-) जैसे लाभार्थी (उदयार्थी) वणिक् क्रय-विक्रय के योग्य (पण्य) वस्तु को लेकर प्राय (लाभ) के हेतु (महाजनों का) संग (सम्पर्क) करता है, यही उपमा श्रमण के लिए (घटित होती) है; ये ही वितर्क (विचार) मेरी बुद्धि में उठते हैं / ८०६-नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं, चिच्चाऽमई तायति साह एवं / एत्तावया बंभवति त्ति वुत्ते, तस्सोदयठ्ठी समणे ति बेमि // 20 // ८०६-(प्राईक मुनि ने उत्तर दिया--) भगवान महावीर स्वामी नवीन कर्म (बन्ध) नहीं करते, अपितु वे पुराने (बंधे हुए) कर्मों का क्षषण (क्षय) करते हैं। (क्योंकि) षड्जीवनिकाय के त्राता, वे भगवान्) स्वयं यह कहते हैं कि प्राणी कुबुद्धि का त्याग करके ही मोक्ष को प्राप्त करता है। 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 393 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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