Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 694 ] [55 इसी प्रकार के (सुवर्ण-दुर्वर्ण आदि रूप) विज्ञ (समझदार) प्राणी हैं, वे सुख-दुःख का वेदत करते हैं, उनमें अवश्य ही ये तेरह प्रकार के क्रियास्थान होते हैं, ऐसा श्री तीर्थकर देव ने कहा है / वे क्रियास्थान इस प्रकार हैं--(१) अर्थदण्ड, (2) अनर्थदण्ड, (3) हिंसादण्ड, (4) अकस्मात् दण्ड, (5) दृष्टिविपर्यासदण्ड, (6) मृषाप्रत्ययिक, (7) अदत्तादानप्रत्ययिक, (8) अध्यात्मप्रत्ययिक, (6) मानप्रत्ययिक (10) मित्रद्वेषप्रत्ययिक (11) मायाप्रत्ययिक, (12) लोभ-प्रत्ययिक और (13) ई-प्रत्ययिक / विवेचन-संसार के समस्त जीव : तेरह क्रियास्थानों में प्रस्तुत सूत्र में श्री सुधर्मास्वामी श्रीतीर्थकर भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुने हुए 13 क्रियास्थानों का उल्लेख श्री जम्बूस्वामी के समक्ष करते हैं / इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने निम्नलिखित तथ्यों का निरूपण किया है (1) सामान्य रूप से दो स्थान-धर्मस्थान और अधर्मस्थान अथवा उपशान्तस्थान और अनुपशान्तस्थान। (2) अधर्मस्थान के अधिकारी-आर्य-अनार्य आदि मनुष्य / (3) चारों गतियों के विज्ञ (चेतनाशील) एवं सुख-दुःख-वेदनशील जीवों में तेरह कर्मबन्ध कारणभूत क्रियास्थानों का अस्तित्त्व / (4) तेरह क्रियास्थानों का नामोल्लेख / क्रियास्थान—किसी क्रिया या प्रवृत्ति का स्थान यानी कारण, निमित्तकारण क्रियास्थान कहलाता है / संक्षेप में, किया जिस निमित्त से हुई हो उसे क्रियास्थान कहते हैं / ___ दण्डसमादान-दण्ड कहते हैं-हिंसादियापोपादानरूप संकल्प को, जिससे जीव दण्डित (पीडित) होता है, उसका समादान यानी ग्रहण दण्डसमादान है / ' - वेयणं वेदंति की व्याख्या-इसके दो अर्थ बताए गए हैं। तदनुसार अनुभव और ज्ञान की दृष्टि से वृत्तिकार ने यहाँ चतुर्भगी बताई है-(१) संज्ञी वेदना का अनुभव करते हैं, जानते भी हैं, (2) सिद्ध भगवान जानते हैं, अनभव नहीं करते (3) असंज्ञी अनभव करते हैं, जानते नहीं, और (4) अजीव न अनुभव करते हैं, न जानते हैं / यहाँ प्रथम और तृतीय भंग वाले जीवों का अधिकार है, द्वितीय और चतुर्थ यहाँ अप्रासंगिक हैं / 2 क्रियास्थानों द्वारा कर्मबन्ध-इन तेरह क्रियास्थानों के द्वारा कर्मबन्ध होता है, इनके अतिरिक्त कोई क्रियास्थान नहीं, जो कर्मबन्धन का कारण हो / इसलिए समस्त संसारी प्राणी इन तेरह क्रियास्थानों में समा जाते हैं।' ___ शास्त्रकार एवं वृत्तिकार स्वयं इन तेरह क्रियास्थानों का अर्थ एवं व्याख्या आगे यथास्थान करेंगे। 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 304-305 का सारांश 2. सूत्र कृ. शी. वृत्ति, पत्रांक, 304 3. वही. पत्रांक 305 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org