Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 731 ] [ 117 वनस्पतिकायिक जीवों के मुख्य प्रकार--वनस्पतिकायिक जीवों के यहाँ मुख्यतया निम्नोक्त भेदों का उल्लेख है बोजकायिक, पृथ्वीयोनिकवृक्ष वृक्षयोनिकवृक्ष, वृक्षयोनिकवृक्षों में वृक्ष, वृक्षयोनिक वृक्षों से उत्पन्न मूल आदि से लेकर बीज तक, वृक्षयोनिक वृक्षों से उत्पन्न अध्यारूह, वृक्षयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न अध्यारूह, अध्यारूहयोनिकों में उत्पन्न अध्यारूह, अध्यारूहयोनिक अध्यारूहों में उत्पन्न मूल से लेकर बीज तक अवयव, अनेकविध पृथ्वीयोनिक तृण, पृथ्वीयोनिक तणों में उत्पन्न तृण, तृणयोनिक तृणों में उत्पन्न तृण, तृणयोनिक तृणों के मूल से लेकर बीज तक अवयव, तथा औषधि हरित, अनेकविध पृथ्वी में उत्पन्न आर्य, वाय से लेकर कूट तक की वनस्पति, उदकयोनिक वृक्ष, (अध्यारूह, तृण औषधि तथा हरित आदि), अनेकविधउदकयोनि में उत्पन्न उदक से लेकर पुष्कराक्षिभग तक की वनस्पति आदि। बीजकायिक जीव चार प्रकार के होते हैं-अग्रबीज (जिसके अग्रभाग में बीज हो, जैसेतिल, ताल, ग्राम, गेहूँ, चावल आदि), मूलबीज (जो मूल से उत्पन्न होते हैं, जैसे—अदरक मादि), पर्वबीज (जो पर्व से उत्पन्न होते हैं, जैसे-ईख आदि) और स्कन्धबीज (जो स्कन्ध से उत्पन्न होते हैं, जैसे सल्लकी आदि)। उत्पत्ति के कारण पूर्वोक्त विविध प्रकार की वनस्पतियों की योनि (मुख्य उत्पत्तिस्थान) भिन्न-भिन्न हैं / पृथ्वी, वृक्ष, जल बीज आदि में से जिस वनस्पति की जो योनि है, वह वनस्पति उसी योनि से उत्पन्न कहलाती है / वृक्षादि जिस वनस्पति के लिए जो प्रदेश उपयुक्त होता है, उसी प्रदेश में वह (वृक्षादि वनस्पति) उत्पन्न होती है, अन्यत्र नहीं, तथा जिसकी उत्पत्ति के लिए जो काल, भूमि, जल, अाकाशप्रदेश और बीज आदि अपेक्षित है, उनमें से एक के भी न होने पर वह उत्पन्न नहीं होता / तात्पर्य यह है कि वनस्पतिकायिक विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के लिए भिन्न-भिन्न काल, भूमि, जल, बीज आदि तो बाह्य निमित्त कारण हैं ही, साथ ही अन्तरंग कारण कर्म भी एक अनिवार्य कारण है। कर्म से प्रेरित हो कर ही विविध वनस्पतिकायिक जीव नानाविध योनियों में उत्पन्न होता है / कभी यह पृथ्वी से वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, कभी पृथ्वी से उत्पन्न हुए वृक्ष से वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, कभी वृक्षयोनिक वृक्ष के रूप में उत्पन्न होती है, और कभी वृक्षयोनिक वृक्षों से मूल, कन्दफल, मूल, त्वचा, पत्र, बीज, शाखा, बेल, स्कन्ध आदि रूप में उत्पन्न होती है / इसी तरह कभी वृक्षयोनिक वृक्ष से अध्यारूह आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है। कभी नानायोनिक पृथ्वी से तृणादि चार रूपों में, कभी औषधि आदि चार रूपों में, तथा कभी हरित आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है। कभी वह विविधयोनिक पृथ्वी से सीधे आर्य, वाय से लेकर कूट तक की वनस्पति के रूप में उत्पन्न होती है / कभी वह उदकयोनिक उदक में वृक्ष आदि चार रूपों में उत्पन्न होती है, कभी उदक से सीधे ही उदक, अवक से लेकर पुष्कराक्षिभग नामके वनस्पति के रूप में उत्पन्न होती है / यद्यपि पहले जिन के चार-चार आलापक बताए गए थे, उनके अन्तिम उपसंहारात्मक सूत्र (731) में तीन-तीन आलापक बताए गए हैं / इसका तत्त्व केवलिंगम्य है। अध्यारूह-वृक्ष आदि के ऊपर एक के बाद एक चढ़ कर जो उग जाते है, उन्हें अध्यारूह (क) सूत्रकृ. शो. बृत्ति, पत्रांक 349 से 352 तक का निष्कर्ष (ख) 'रुक्खजोणिएस रुक्खेसु अज्झारुहत्ताए....'-हहें जन्मनि, अहियं आरुहंति ति अभारोहा। रुक्खस्स उरि अन्नो रुक्खो ।'-चूणि / वृक्षेषु उपयुपरि अध्यारोहन्तीति अध्यारूहाः, वक्षोपरिजातावक्षा इत्यभिधीयत्त ।-शी. वृत्ति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org