Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन प्राथमिक 11 सूत्रकृतांग (द्वि. श्रु.) के तृतीय अध्ययन का नाम 'आहारपरिज्ञा' है। 0 शरीरधारी प्राणी को आहार ग्रहण करना अनिवार्य होता है, उसके बिना शरीर की स्थिति सम्भ नहीं है / साधु-साध्वियों को भी आहार-ग्रहण करना आवश्यक होता है। वे दोषरहित शुद्ध कल्पनीय आहार से ही अपने शरीर की रक्षा करें, अशुद्ध अकल्पनीय से नहीं; तथा कवलाहार के अतिरिक्त भी अन्य किस किस आहार से शरीर को पोषण मिलता है, अन्य जीवों के आहार की पूर्ति कैसे और किस प्रकार के आहार से होती है ? इस प्रकार जीवों के आहार के सम्बन्ध में साधकों को विविध परिज्ञान कराने के कारण इस अध्ययन का नाम 'पाहारपरिज्ञा' रखा गया है। 0 मुख्यतया आहार के दो भेद हैं-द्रव्याहार एवं भावाहार / द्रव्याहार सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार का है। / प्राणिवर्ग क्षुधा वेदनीय कर्मोदय से जब किसी वस्तु का आहार करता है, वह भावाहार है। समस्त प्राणी तीन प्रकार से भावाहार ग्रहण करते हैं-प्रोज-पाहार, रोम-पाहार और प्रक्षेपाहार / 0 जब तक औदारिक रूप में दृश्यमान शरीर उत्पन्न नहीं होता, (किन्हीं प्राचार्यों के मत से जब तक इन्द्रिय, प्राण, भाषा और मन की उत्पत्ति नहीं होती); तब तक तैजस-कार्मण एवं मिश्र शरीर द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार प्रोज-आहार है। शरीर की रचना पूर्ण होने के बाद बाहर की त्वचा (स्पर्शेन्द्रिय) से या रोमकप से प्राणियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार रोमाहार या लोमाहार है। मुख-जिह्वा आदि द्वारा जो कवल (कौर), बूद, कण, कतरे आदि के रूप में जो आहार ग्रहण किया जाता है, उसे प्रक्षेपाहार (कवलाहार) कहते हैं / 10 अपर्याप्त जीवों का भोज आहार, देवों-नारकों का रोमाहार, तथा अन्य पर्याप्त जीवों का प्रेक्षपाहार होता है / केवली अनन्तवीर्य होते हुए भी उनमें पर्याप्तित्व, वेदनीयोदय, आहार को पचाने वाला तैजस् शरीर और दीर्घायुष्कता होने से उनका कवलाहार करना युक्तिसिद्ध है। - चार अवस्थाओं में जीव आहार नहीं करता-(१) विग्रहगति के समय, (2) केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवें समय में, (3) शैलेशी अवस्था प्राप्त अयोगी केवली, (4) सिद्धि प्राप्त आत्मा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org