Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ क्रियास्थान : द्वितीय अध्ययन : सूत्र 714 ] से निर्दय, दम्भी, धोखेबाज, दुराचारी, छलकपट-निपुण, अतिक्रोधी, अतिमानी, अतिसाहसी एवं अतिरौद्र होते हैं। छोटी-छोटी बात पर ऋद्ध होकर अपने स्वजनों एवं अनुचरों को भयंकर बड़ा से बड़ा दण्ड दे बैठते हैं / वे पंचेन्द्रिय विषयों में गाढ आसक्त एवं काम-भोगों में लुब्ध रहते हैं। परिणाम-वे इहलोक में सदा दुःख, शोक, संताप, मानसिक क्लेश, पीड़ा, पश्चात्ताप आदि से घिरे रहते हैं, तथा यहाँ अनेक प्राणियों के साथ वैर बाँध कर, अधिकाधिक विषयभोगों का उपभोग करके कूटकर्म संचित करके परलोक में जाते हैं / वहाँ नीचे की नरक भूमि में उनका निवास होता है, जहाँ निद्रा, धृति, मति, रति, श्रुति, बोधि आदि सब लुप्त हो जाती हैं / असह्य वेदनाओं और यातनाओं में ही उसका सारा लम्बा जीवन व्यतीत होता है ! उसके पश्चात् भी चिरकाल तक वह संसार में परिभ्रमण करता है / द्वितीय स्थान-धर्मपक्ष : अधिकारी, वृत्ति, प्रवृत्ति, सुपरिणाम 714-- प्रहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंमा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुगा धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुन्वता सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वातो पाणातिवायातो पडिविरता जावज्जीवाए जाव जे यावरणे तहप्पगारा सावज्जा प्रबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जति ततो वि पडिविरता जावज्जीवाए। से जहानामए अणगारा भगवंतो इरियासमिता भासासमिता एसणासमिता प्रायाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिता उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिता मणसमिता वइसमिता कायसमिता मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुतिदिया गुत्तबंभचारी अकोहा प्रमाणा अमाया प्रलोभा संता पसंता उवसंता परिणिन्वुडा प्रणासवा अगथा छिन्नसोता निरुवलेवा कंसपाई व मुक्कतोया, संखो इव णिरंगणा, जीवो इव अप्पडिहयगतो, गगणतलं पि व निरालंबणा, वायुरिव अपडिबद्धा, सारदसलिलं व सुद्धहियया, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, कुम्मो इव गुत्तिदिया, विहग इव विष्पमुक्का, खग्गविसाणं व एमजाया, भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जातत्थामा, सीहो इव दुद्धरिसा, मंदरो इव अप्पकंपा, सागरो इव गंभीरा, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव दित्ततेया, जच्चकणगं व जातरूवा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुतहुयासणो विव तेयसा जलंता। ___णस्थि णं तेसि भगवंताणं कस्थइ पडिबंधे भवति, से य पडिबंधे चउम्विहे पण्णते, तं जहाअंडए ति वा पोयए इ वा उग्गहिए ति वा पग्गहिए ति वा, जण्णं जण्णं दिसं इच्छंति तण्णं तण्णं दिसं अप्पडिबद्धा सुइन्भूया लहुन्भूया अणुप्पगंथा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति / 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 328 ये 331 तक का निष्कर्ष 2. तुलना-औपपातिक सूत्र में यह पाठ प्राय: समान है। - प्रौप सू. 17 3. पाठान्तर-गुत्तागुत्त दिया गुप्तानि शब्दादिषु रागादिनिरोधात्, अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिषु अनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते।" अर्थात-रागादि का निरोध होने से शब्दादि में जिनकी इन्द्रियाँ गुप्त हैं, तथा प्रागमश्रवण, ईर्यासमिति ग्रादि में निरोध न होने से जिनकी इन्द्रियाँ अगुप्त हैं। - औपपातिक सू० वृत्ति पृ० 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org