Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 94 / सूत्रकृतांगसूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध उत्तम जाति के सोने में जैसे मल (दाग) नहीं लगता, वैसे ही उन महात्माओं के कर्ममल नहीं लगता। वे पृथ्वी के समान सभी (परीषह, उपसर्ग आदि के) स्पर्श सहन करते हैं / अच्छी तरह होम (अथवा प्रज्वलित) की हुई अग्नि के समान वे अपने तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं। उन अनगार भगवन्तों के लिए किसी भी जगह प्रतिबन्ध (रुकावट) नहीं होता। वह प्रतिबन्ध चार प्रकार से होता है, जैसे कि-अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर आदि पक्षियों से (अथवा अण्डज यानी पटसूत्रज—रेशमी वस्त्र का), पोतज (हाथी आदि के बच्चों से अथवा बच्चों का अथवा पोतक = वस्त्र का) अवग्रहिक (वसति, पट्टा-चौकी आदि का) तथा प्रौपग्रहिक (दण्ड, आदि उपकरणों का) होता है। (उन महामुनियों के विहार में ये चारों ही प्रतिबन्ध नहीं होते)। वे जिस-जिस दिशा में विचरण करना चाहते हैं, उस-उस दिशा में अप्रतिबद्ध (प्रतिबन्ध रहित), शुचिभूत (पवित्र-हृदय अथवा श्रुतिभूत-सिद्धान्त प्राप्त) लघुभूत (परिग्रहरहित होने से हलके) अपनी त्यागवृत्ति के अनुरूप (औचित्य के अनुसार किन्तु अपुण्यवश नहीं) अणु (सूक्ष्म) ग्रन्थ (परिग्रह) से भी दूर (अथवा अनल्प-ग्रन्थ यानी विपुल प्रागमज्ञान-आत्मज्ञानरूप भावधन से युक्त) होकर संयम एवं तप से अपनी प्रात्मा को भावित (सुवासित) करते हुए विचरण करते हैं। ___ उन अनगार भगवन्तों की इस प्रकार की संयम यात्रा के निर्वाहार्थ यह वृत्ति (प्रवृत्ति) होती है, जैसे कि वे चतुर्थभक्त (उपवास) करते हैं, षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला), दशमभक्त (चौला) द्वादशभक्त (पचौला), चतुर्दश भक्त (छह उपवास) अर्द्ध मासिक भक्त (पन्द्रह दिन का उपवास) मासिक भक्त (मासक्षमण), द्विमासिक (दो महीने का) तप, त्रिमासिक (तीन महीने का) तप, चातुर्मासिक (चार महीने का) तप, पंचमासिक (पांच मास का) तप, एवं पाण्मासिक (छह महीने का) तप, इसके अतिरिक्त भी कोई कोई निम्नोक्त अभिनहों में (से किसी अभिग्रह के धारक भी होते हैं) जैसे कई हंडिया (बर्तन) में से (एक बार में) निकाला हुआ आहार लेने की चर्या (उत्क्षिप्तचरक) वाले होते हैं, कई हंडिया (बर्तन) में से निकालकर फिर हंडिया या थाली आदि में रक्खा हुना आहार लेने की चर्या वाले (निक्षिप्तचरक), होते हैं, कई उत्क्षिप्त और निक्षिप्त (पूर्वोक्त) दोनों प्रकार से आहार ग्रहण करने की चर्या वाले (उत्क्षिप्त-निक्षिप्तचरक) होते हैं, कोई शेष बचा हुआ (अन्त) आहार लेने के अभिग्रह वाले, कोई फैक देने लायक (प्रान्त) आहार लेने के अभिग्रह वाले, कई रूक्ष आहार ग्रहण करने के अभिग्रह वाले, कोई सामुदानिक (छोटे-बड़े अनेक घरों से सामुदायिक भिक्षाचरी करते हैं, कई भरे हुए (संसृष्ट) हाथ से दिये हुए आहार को ग्रहण करते हैं. कई न भरे हुए (असंसृष्ट) हाथ से आहार लेते हैं, कोई जिस अन्न या शाक आदि से चम्मच या हाथ भरा हो, उसी हाथ या चम्मच से उसी वस्तु को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई देखे हुए आहार को लेने का अभिग्रह करते हैं, कोई पूछ कर ही आहार लेते हैं, और कई पूछे बिना आहार ग्रहण करते हैं / कोई भिक्षा की तरह की तुच्छ या अविज्ञात भिक्षा ग्रहण करते हैं, और कोई अतुच्छ या ज्ञात भिक्षा ग्रहण करते हैं। कोई अज्ञात-अपरिचित घरों से ग्राहार लेते हैं, कोई आहार के बिना ग्लान होने पर ही आहार ग्रहण करते हैं / कोई दाता के निकट रखा हुया आहार ही ग्रहण करते है, कई दत्ति की संख्या (गिनती) करके आहार लेते हैं, कोई परिमित आहार ग्रहण करते हैं, कोई शूद्ध (भिक्षा-दोषों से सर्वथा रहित) आहार की गवेषणा करके आहार लेते हैं, वे अन्ताहारी, प्रान्ताहारी होते हैं, कई अरसाहारी एवं कई विरसाहारी (नीरस-स्वादरहित वस्तु का पाहार करने वाले) होते हैं, कई रूखा-सूखा आहार करने वाले तथा कई तुच्छ आहार करने वाले होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org