Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गाथा :536 से 544 405 का वास्तविक मार्ग है, परन्तु विनयवादी उसे असत्य कहते हैं, (3) केवल विनय से मोक्ष नहीं होता, तथापि विनयवादी केवल विनय से ही मोक्ष मानकर असत्य को सत्य मानते हैं। विनयवादियों में सत् और असत् का विवेक नहीं होता। वे अपनी सद्-असद्विवेकशालिनी बुद्धि का प्रयोग न करके विनय करने की धुन में अच्छे-बुरे, सज्जन-दुर्जन, धर्मात्मा-पापी, सुबुद्धि-दुर्बुद्धि, सुज्ञानी-अज्ञानी, आदि सभी को एक सरीखा मानकर सबको वन्दन-नमन, मान-सम्मान, दान आदि देते हैं / देखा जाए तो यथार्थ में वह विनय नहीं है, विवेकहीन प्रवृत्ति है। ___ जो साधक विशिष्ट धर्माचरण अर्थात्-साधत्व की क्रिया नहीं करता, उस असाधु को विनयवादी केवल वन्दन-नमन आदि औपचारिक विनय क्रिया करने मात्र से साधु मान लेते हैं। धर्म के परीक्षक नहीं, वे औपचारिक विनय से ही धर्मोत्पत्ति मान लेते हैं, धर्म की परीक्षा नहीं करते। विनयवाद के गुण-दोष को मीमांसा-विनयवादी सम्यक् प्रकार से वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना ही मिथ्याग्रह एवं मत-व्यामोह से प्रेरित होकर कहते हैं- "हमें अपने सभी प्रयोजनों की सिद्धि विनय से होती प्रतीत है, विनय से ही स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति होती है।" यद्यपि विनय चारित्र का अंग है, परन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना, विवेक-विकल विनय चारित्ररूप मोक्ष मार्ग का अंगभूत विनय नहीं है। अगर विनयवादी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप विनय की विवेकपूर्वक आराधना-साधना करें, साथ ही आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़े हुए जो अरिहन्त या सिद्ध परमात्मा है, अथवा पंच महाव्रत धारी निर्ग्रन्थ चारित्रात्मा हैं, उनकी विनय-भक्ति करें तो उक्त मोक्ष मार्ग के अंगभूत-विनय से उन्हें स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु इसे ठुकरा कर अध्यात्मविहीन, अविवेकयुक्त एवं मताग्रहगृहीत एकान्त औपचारिक विनय से स्वर्ग या मोक्ष बतलाना उनका एकान्त दुराग्रह है, मिथ्यावाद है। विविध एकान्त अक्रियावादियों की समीक्षा ."लवायसंकी य अणागतेहि, णो किरियमाहंसु अफिरियआया // 4 // 539. सम्मिस्सभावं सगिरा गिहीते, से मुम्मुई होति अणाणुवादी। इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहेसु छलायतणं च कम्मं // 5 // 540. ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियाता। जमादिदित्ता बहवो मणूसा, भमति संसारमणोवतग्गं / / 6 / / 541. पाइच्चो उदेति ण अत्थमेति, ण चंदिमा वड्ढती हायती वा / सलिला ण संदति ण वंति वाया, वझे णियते कसिणे हु लोए // 7 // 3 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 213-214 का तात्पर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org