Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग--चौदहवां अध्ययन-ग्रन्थ 606 से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विदति तत्थ तत्थ / आदेज्जवक्के कुसले वियत्ते, से अरिहति भासिउ तं समाहि // 27 // त्ति बेमि। // गंथो : चउद्दसमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 597. (गुरुकुलवासी होने से धर्म में सुस्थित, बहुश्रुत, प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद ) साधु सद्बुद्धि से (स्व-पर-शक्ति को, पर्षदा को या प्रतिपाद्य विषय को सम्यकतया जान कर) दूसरे को श्रुतचारित्र-रूप धर्म का उपदेश देते हैं (धर्म की व्याख्या करते हैं) / वे बुद्ध-त्रिकालवेत्ता होकर जन्म-जन्मा संचित कर्मों का अन्त करने वाले होते है, वे स्वयं और दूसरों को कर्मपाश से अथवा ममत्वरूपी बेड़ी से मुक्त (छुड़ा) करके ससार-पारगामी हो जाते हैं / वे सम्यक्तया सोच-विचार कर (प्रश्नकर्ता कौन है ? यह किस पदार्थ को समझ सकता है, मैं किस विषय का प्रतिपादन करने में समर्थ हूँ ?, इन बातों की भली-भांति परीक्षा करके) प्रश्न का संशोधित (पूर्वापर अविरुद्ध) उत्तर देते हैं / 568. साधु प्रश्नों का उत्तर देते समय शास्त्र के यथार्थ अर्थ को न छिपाए (अथवा वह अपने गुरु या आचार्य का नाम या अपना गुणोत्कर्ष बताने के अभिप्राय से दूसरों के गुण न छिपाए), अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्रपाठ की तोड़-मरोड़कर व्याख्या न करे. (अथवा दसरों के गणों को दषित न करे). तथा वह मैं ही सर्वशास्त्रों का ज्ञाता और महान् व्याख्याता हूँ, इस प्रकार मान-गर्व न करे, न ही स्वयं को बहुश्रुत एव महातपस्वी रूप से प्रकाशित करे अथवा अपने तप, ज्ञान, गुण आदि को प्रसिद्ध न करे / प्राज्ञ (श्रुतधर) साधक श्रोता (मन्द बुद्धि व्यक्ति) का परिहास भी न करे, और न ही (तुम पुत्रवान्, धनवान् या दीर्घायु हो इत्यादि इस प्रकार का) आशीर्वादसूचक वाक्य कहे। 566. प्राणियों के विनाश की आशंका से तथा पाप से घृणा करता हुआ साधु किसी को आशीर्वाद न दे, तथा मंत्र आदि के पदों का प्रयोग करके गोत्र (वचनगुप्ति या वाक् संयम अथवा मौन) को निःसार न करे, (अथवा साधु राजा आदि के साथ गुप्त मंत्रणा करके या राजादि को कोई मात्र देकर गोत्र-प्राणियों के जीवन का नाश न कराए) साधु पुरुष धर्मकथा या शास्त्रव्याख्यान करता हुआ जनता (प्रजा) से द्रव्य या किसी पदार्थ के लाभ, सत्कार या भेट, पूजा आदि की अभिलाषा न करे, असाधुओं के धर्म (वस्तुदान, तर्पण आदि) का उपदेश न करे (अथवा असाधुओं के धर्म का उपदेश करने वाले को सम्यक न कहे, अथवा धर्मकथा करता हुआ साधु असाधु-धर्मो--अपनी प्रशंसा, कीर्ति, प्रसिद्धि आदि को इच्छा न करे)। 600. जिससे हँसी उत्पन्न हो, ऐसा कोई शब्द या मन-वचन-काया का व्यापार न करे, अथवा साधु किसी के दोषों को प्रकट करने वाली, पापबन्ध के स्वभाववाली बातें हँसी में न कहे / वीतरागता में ओतप्रोत (रागद्वष रहित) साधु दूसरों के चित्त को दुखित करने वाले कठोर सत्य को भो पापकर्मबन्धकारक जानकर न कहे। साधु किसी विशिष्ट लब्धि, सिद्धि या उपलब्धि अथवा पूजा-प्रतिष्ठा को पाकर मद न करे, न ही अपनी प्रशंसा करे अथवा दूसरे को भलीभाँति जाने परखे बिना उसकी अतिप्रशंसा न करे / साधु व्याख्यान या धर्मकथा के अवसर पर लाभादि निरपेक्ष (निर्लोभ) एवं सदा कषायरहित होकर रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org