Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 689, 690 ] [ 47 लिए, ज्ञातिजनों के लिए, राजन्यों, दास, दासी, कर्मकर, कर्मकरी (स्त्री) तथा अतिथि के लिए, या किसी दूसरे स्थान पर भेजने के लिए या रात्रि में खाने के लिए अथवा प्रात: नाश्ते के लिए आहार बनाया है, अथवा इस लोक में जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको भोजन देने के लिए उसने आहार का अपने पास संचय किया है। ऐसी स्थिति में साधु दूसरे के द्वारा दूसरों के लिए बनाये हुए तथा उद्गम, उत्पाद और एषणा दोष से रहित शुद्ध, एवं अग्नि प्रादि शस्त्र द्वारा परिणत होने से प्रासुक (अचित्त) बने हुए एवं अग्नि आदि शस्त्रों द्वारा निर्जीव किये हुए अहिंसक (हिंसादोष से रहित) तथा एषणा (भिक्षा-वृत्ति) से प्राप्त, तथा साधु के वेषमात्र से प्राप्त, सामुदायिक भिक्षा (माधुकरी वृत्ति) से प्राप्त, प्राज्ञ--गीतार्थ के द्वारा ग्राह्य (कल्पनीय) वैयावृत्त्य आदि 6 कारणों में से किसी कारण से साधु के लिए ग्राह्य प्रमाणोपेत, एवं गाड़ी को चलाने के लिए उसकी धुरी में दिये जाने वाले तेल तथा घाव पर लगाये गए लेप (मल्हम) के समान केवल संयमयात्रा के निर्वाहार्थ ग्राह्य अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-रूप चतुर्विध आहार का बिल में प्रवेश करते हुए साँप के समान स्वाद लिये बिना ही सेवन करे / जैसे कि वह भिक्षु अन्नकाल में अन्न (आहार) का, पानकाल में पान (पेय पदार्थ) का, वस्त्र (परिधान) काल में वस्त्र का, मकान (में प्रवेश या निवास के) समय में मकान (आवास-स्थान) का, शयनकाल में शय्या का ग्रहण एवं सेवन (उपभोग) करता है। ६८९-से भिक्खू मातणे अण्णतरं दिसं वा अणुदिसं वा पडिवणे धम्मं प्राइक्खे विभए किट्टे उद्वितेसु वा अणुवट्टितेसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए / संतिविरति उवसमं निवाणं सोयवियं प्रज्जवियं मद्दवियं लावियं अणतिवातियं सन्वेसि पाणाणं सर्वसि भूताणं जाव सत्ताणं अणुवीइ किट्टए धम्म / ६८९—वह भिक्ष (आहार, उपधि, शयन, स्वाध्याय, ध्यान आदि प्रत्येक चर्या की) मात्रा एवं विधि का ज्ञाता होकर किसी दिशा या अनुदिशा में पहुंचकर, धर्म का व्याख्यान करे, (धर्मतत्त्व के अनुरूप कर्तव्य का यथायोग्य) विभाग करके प्रतिपादन करे, धर्म के फल का कीर्तन-कथन करे / (परहितार्थ प्रवृत्त) साधु (भली भाँति सुनने के लिए) उपस्थित (तत्पर) (शिष्यों या श्रावकों को) अथवा अनुपस्थित (कौतुकादिवश आगत-धर्म में अतत्पर) श्रोताओं को (स्व-पर-कल्याण के लिये) धर्म का प्रतिपादन करे। (धर्मधुरन्धर) साधु (समस्त क्लेशोपशमरूप) के लिए विरति (विषय-कषायों या आश्रवों से निवृत्ति (अथवा शान्ति = क्रोधादि कषायविजय, शान्ति-प्रधान विरति -प्राणातिपातादि से निवृत्ति), उपशम(इन्द्रिय और मन का शमन अथवा राग द्वेषाभावजनित उपशमन),निर्वाण (समस्तद्वन्द्वोपरमरूप या सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष), शौच (निर्लोभता), आर्जव (सरलता),मार्दव (कोमलता), लाघव (लघुता--- हलकापन) तथा समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति अहिंसा आदि धर्मों के अनुरूप (या प्राणियों के हितानुरूप) विशिष्ट चिन्तन करके धर्मोपदेश दे / 660. से भिक्ख धम्म किट्टमाणे णो अन्नस्स हेउ धम्म प्राइवखेज्जा, णो पाणस्स हेउं धम्म प्राइक्खेज्जा, णो वत्थस्स हेडं धम्म प्राइक्खेज्जा,' णो लेणस्स हे धम्मं प्राइखेज्जा, णो सयणस्स 1. तुलना —"ण कहेज्जा धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदु ।'"--मूलाराधना विजयोदयावृत्ति, पृ. 612 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org