Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गाथा 625 से 631 446 626. इस जगत् में फिर नहीं आने के लिये मोक्ष में गए हुए (तथागत) मेधावी (ज्ञानी) पुरुष क्या कभी फिर उत्पन्न हो सकते हैं ? (कदापि नहीं / ) अप्रतिज्ञ (निदान-रहित) तथागत-तीर्थकर, गणधर आदि लोक (प्राणिजगत्) के अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) नेत्र (पथप्रदर्शक) हैं। विवेचन-मोक्षप्राप्त पुरुषोत्तम और उनका शाश्वत स्थान-प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय में मोक्षप्राप्त पुरुषो. त्तम का स्वरूप बताकर संसार में उनके पुनरागमन का निराकरण किया गया है। धर्म के विशेषणों की व्याख्या- शुद्ध- समस्त उपाधियों से रहित होने से विशुद्ध है, प्रतिपूर्ण-जिसमें विशाल (आयत) चारित्र होने से अथवा जो यथाख्यात चारित्र रूप होने से परिपूर्ण है। अनीदृश=अनुपम -~-अनुत्तर / धामं अवखंति--धर्म का प्रतिपादन करते हैं, स्वयं आचरण भी करते हैं / संसार-पारंगत साधक की साधना के विविध पहलू 627 अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेदिते। जं किच्चा णिवुडा एगे, निद्रं पावंति पंडिया // 21 // 628 पंडिए बीरियं लद्ध, निग्घाया य पवत्तगं / धुणे पुव्वकडं कम्म, नवं चावि न कुवति // 22. / 626 म कुव्वतो महाघोरे, अणुपुरनकडं रयं / रयसा संमुहीभूता कम्मं हेच्चाण जं मतं // 23 // 630 जं मतं सव्वसाहूणं, तं मयं सल्लकत्तणं / साहइत्ताण तं तिण्णा, देवा वा अविसु ते // 24 // 631 अर्भावसु पुरा बोरा, आगमिस्सा वि सुव्वता। दुणिकोहस्स मग्गस्स, अंतं पादुकरा तिण्णे // 25 // त्ति बेमि // // जमतीतं : पण्णरसमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 627. काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर ने बताया है कि वह अनुत्तर (सबसे प्रधान) स्थान संयम है, जिस (संयम) का पालन करके कई महासत्त्व साधक निर्वाण को प्राप्त होते हैं। वे पण्डित (पाप से निवृत्त) साधक निष्ठा (संसार चक्र का अन्त, या सिद्धि की पराकाष्ठा) प्राप्त कर लेते हैं / 628. पण्डित (सद्-असद्-विवेकज्ञ) साधक समस्त कर्मों के निघात (निर्जरा) के लिए प्रवर्तक (अनेकभवदुर्लभ) पण्डितवीर्य (या सुसंयभवीर्य अथवा तपोवीर्य) को प्राप्त करके पहले के अनेक भवों में किये हुए कर्मों का क्षय कर डाले और नवीन कर्मबन्ध न करे। 5 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 256 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org