Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य 576. साधु यथातथ्य धर्म को (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म को या स्व-पर सिद्धान्त को यथातथ्यरूप में) भली-भांति जानता-देखता हुआ समस्त प्राणियों को दण्ड देना (प्राण-हनन करना) छोड़कर अपने जीवन एवं मरण की आकांक्षा न करे, तथा माया से विमुक्त होकर संयमाचरण में उद्यत रहे / विवेचन-साधुधर्म का - यथातथ्य रूप में प्राणप्रण से पालन करे--प्रस्तुत सूत्र अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार किसी भी मूल्य पर यथातथ्यरूप में सम्यग्दर्शनादि रूप धर्म का पालन करने, उसी का चिन्तन-मनन करने और जीवन-मरण की आकांक्षा न करते हुए निश्छल भाव से उसी का अनुसरण करने का निर्देश करते हैं / वृत्तिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि धर्म, मार्ग, समवसरण आदि पिछले अध्ययनों में कथित सम्यक्त्व, चारित्र एवं ज्ञान के तत्त्वों पर सूत्रानुसार यथातथ्य चिन्तन, मनन, एव आचरण करे। प्राण जाने का अवसर आए तो भी यथातथ्य धर्म का अतिक्रमण न करे। असंयम के साथ या प्राणिवध करके चिरकाल तक जीने की आकांक्षा न करे तथैव परीषह उपसर्ग आदि से पीड़ित होने पर शीघ्र मृत्यु की आकांक्षा न करे। // याथातथ्य : तेरहवां अध्ययन समाप्त / / 0000 7 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 240 का सार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org