Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 352 सूत्रतांगमष्टम अध्ययन-बोयं धम्ममकोवियं इसके दो अर्थ वत्तिकार ने किये हैं--(१) सभी कुतीथिक धर्मों द्वारा अकोपित-अदुषित (2) सभी धर्मों-अनुष्ठानरूप स्वभावों से जो अगोपित-प्रकट है। सिक्खं सिक्खेज्ज=शिक्षा से यथावत् मरणविधि जानकर आसेवनशिक्षा से उसका अभ्यास करे। पाटातर और ध्याख्या-'अणुमाणं.."पंडिए' (गा० 428) के बदले पाठान्तर है-'अइमाणं च........ परिणाय पण्डिए', अर्थ होता है- अतिमान और अतिमाया; ये दोनों दुःखावह होते हैं, यह जानकर पण्डितसाधक इनका परित्याग करे / आशय यह है--सरागावस्था में कदाचित् मान या माया का उदय हो जाए, तो भी उस उदयप्राप्त मान या माया का विफलीकरण कर दे। इसी.पंक्ति के स्थान में दो पाठान्तर मिलते हैं- (1) 'सुयं मे इहमेगेसि एवं बीरस्स बीरियं तथा (2) 'आयतर्से सुमादाय एवं वीरस्स बोरिय' / प्रथम पाठान्तर का भावार्थ-जिस वल से संग्राम में शत्रुसेना पर विजय प्राप्त की जाती है, वह परमार्थ रूप से वीर्य नहीं है, अपितु जिस वल से काम-क्रोधादि आन्तरिक रिपुओं पर विजय प्राप्त की जाती है, वही वास्तव में नीर-महापुरुष का वीर्य हैं, यह वचन मैंने इस मनुष्यजन्म में या संसार में तीर्थंकरों से सुना है। द्वितीय पाठान्तर का भावार्थ-आयत यानी मोक्ष / आयतार्थ =मोक्षरूप अर्थ या मोक्ष रूप प्रयोजन साधक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मार्ग / उसको सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके जो धृतिबल से काम-क्रोधादि पर विजय पाने के लिए पराक्रम करता है, यही वीर का वीर्य हैं। अशुद्ध और शुद्ध पराक्रम ही बालवीर्य और पण्डित्तवीर्य 432. जे याऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्मत्तदंसिणो। ___ असुद्ध तेसि परक्कतं, सफलं होइ सव्वसो // 22 // 433 जे य बुद्धा महाभागा, बीरा सम्मत्तदसिणो। सुद्ध तेसि परक्कंतं, अफलं होति सव्वसो // 23 // 434. तेसि पि तवोऽसुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। जं नेवऽन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेदए // 24 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 170-171 (ख) सिद्धान्त सूत्र -"किसका वोत्तजे सरामधम्ममि कोइ अकसायी। संते वि जो कसाए विगिण्टइ, लोऽवि ततुल्लो // " --सू० क. वृति प० 170 में उधत 10 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 172 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 176 11 माथा संख्या 18 से आगे 16 वीं गाया चणि में अधिक है, वह इस प्रकार है.... "उड्ढमधे तिरिय दिसासु जे पाणा तस-थावरा / सव्वत्थ विरति कुज्जा, संतिनिव्वाणमाहितं // " यह गाथा इसी सूत्र के तृतीय अध्ययन (सू० 244) में तथा 11 वें अध्ययन (सू० 507) में मिलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org