Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग--एकादश अध्ययन-मार्ग 521. उसी (प्रतिपूर्ण अनुपम निर्वाणमार्गरूप धर्म) को नहीं जानते हुए अविवेकी (अबुद्ध) होकर भी स्वयं को पण्डित मानने वाले अन्यतीथिक हम ही धर्मतत्त्व का प्रतिबोध पाए हुए हैं, यों मानते हुए सम्यग्दर्शनादिरूप भाव समाधि से दूर है। 522. वे (अन्यतीथिक) बीज और सचित्त जल का तथा उनके उद्देश्य (निमित्त) से जो आहार बना है, उसका उपभोग करके (आत) ध्यान करते हैं, क्योंकि वे अखेदज्ञ (उन प्राणियों के खेद-पीड़ा से अनभिज्ञ या धर्मज्ञान में अनिपुण) और असमाधियुक्त हैं / 523-524. जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्गा और शिखी नामक जलचर पक्षी मछली को पकड़कर निगल जाने का बुरा विचार (कुध्यान) करते हैं, उनका वह ध्यान पापरूप एवं अधम होता है / इसी प्रकार कई तथाकथित मिथ्यादृष्टि एवं अनार्य श्रमण विषयों की प्राप्ति (अन्वेषणा) का ही ध्यान करते हैं, अतः वे भी ढंक, कंक आदि प्राणियों की तरह पाप भावों से युक्त एवं अधम हैं। 525. इस जगत् में कई दुर्बुद्धि व्यक्ति तो शुद्ध (निर्वाण रूप) भावमार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं / वे अपने लिए दुःख (अष्टविध कर्मरूप या असातावेदनीयोदय रूप दुःख) तथा अनेक बार घात (विनाश-मरण) चाहते हैं या ढूंढ़ते हैं / 526-527. जैसे कोई जमान्ध पुरुष छिद्र वाली नौका पर चढ़कर नदी पार जाना चाहता है, परन्तु वह बीच (मझधार) में ही डूब जाता है। इसी तरह कई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण कमों के आश्रव रूप पूर्ण भाव स्रोत में डूबे हुए होते हैं। उन्हें अन्त में नरकादि दुःख रूप महाभय पाना पड़ेगा। विवेचन–समाधि रूप शुद्ध भाव (निर्वाण) मार्ग से दूर-प्रस्तुत सात सूत्र गाथाओं में अन्यतीथिकों को कतिपय कारण बताते हुए शुद्ध भाव (निर्वाण) मार्ग से दूर सिद्ध किया है / वे कारण ये हैं--(१) निर्वाण मार्ग के कारण हैं-सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र / परन्तु वे धर्म और मोक्ष के वास्तविक बोध से दूर हैं, फिर भी अपने आपको वे तत्त्वज्ञ मानते हैं, (2) अगर उन्हें जीव-अजीव का सम्यग्ज्ञान होता तो वे सचित्त बीज, कच्चे पानी या औद्द शिक दोष युक्त आहार का सेवन न करते, जिनमें कि जीवहिंसा होती है। इसलिए वे जीवों की पीड़ा से अनभिज्ञ अथवा धर्मज्ञान में अनिपुण हैं / (3) अपने संघ के लिए आहार बनवाने तथा उसे प्राप्त करने के लिए अहनिश चिन्तित आर्तध्यान युक्त रहते हैं। जो लोग ऐहिक संख की कामना करते हैं; धन, धान्य आदि परिग्रह रखते हैं, तथा मनोज्ञ आहार, शय्या, आसन आदि रागवद्धक वस्तुओं का उपभोग करते हैं, उनसे त्याग वर्द्धक शुभ.ध्यान कैसे होगा ?deg अतः धर्मध्यान रूप समाधि मार्ग से वे दूर हैं / (4) जलचर मांसाहारी पक्षियों के दुर्ध्यान की तरह वे हिंसादि हेय बातों से 10 (क) सूत्रकतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 202-203 (ख) कहा भी हैं--ग्राम-क्षेत्र-गृहादीनां गवां प्रेष्यजनस्य च / यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् / / -सूत्रकृ० शी० वृत्ति पत्रांक 204 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org