Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 354 सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य लौकिक कामना, एवं कीति आदि की लालसा से तपश्चरण का निषेध है, सिर्फ निर्जरार्थ (कर्मक्षयार्थ) तप का विधान है।" अबुद्धा-इसकी दो व्याख्याएँ वत्तिकार ने की हैं-(१) जो व्यक्ति अबुद्ध है अर्थात्-धर्म के परमार्थ से अनभिज्ञ हैं, वे व्याकरणशास्त्र, शुष्कतर्क आदि के ज्ञान से बड़े अहंकारी बनकर अपने आपको पण्डित मानते हैं, किन्तु उन्हें यथार्थ वस्तुतत्व का बोध न होने के कारण अबुद्ध हैं। (2) अथवा बालवीर्यवान् व्यक्तियों को अबुद्ध कहते हैं।१५ बालजनों का परात्रम- अनेक शास्त्रों के पण्डित एवं त्यागादि गुणों के कारण लोकपूज्य एवं वाणीवीर होते हुए सम्यक्तत्त्वज्ञान से रहित मिथ्यादृष्टि बालजन ही हैं। उनके द्वारा तप, दान, अध्ययन आदि में किया गया कोई भी पराक्रम आत्मशूद्धकारक नहीं होता, प्रत्युत कमंबन्धकारक ह से आत्मा को अमृद्ध बना देता है। जैसे कुवैद्य की चिकित्सा से रोगनाश न होकर उलटे रोग में वृद्धि होती है, वैसे ही उन अज्ञानी मिथ्यादृष्टिजनों की तप आदि समस्त भ्यिाएँ भव-भ्रमणरोग के नाश के वदले भवभ्रमण में वृद्धि करती हैं। पण्डितवीर्य-साधना का आदर्श 435. अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वते / खतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगेही सदा जते // 25 // 436. झाणजोगं समाहट्ट , कायं विउसेज्ज सव्वसो / तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वएज्जासि // 26 // त्ति बेमि / // वीरियं : अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्तं // 435. सुव्रत (महाव्रती) साधु उदरनिर्वाह के लिए थोड़ा-सा आहार करे, तदनुसार थोड़ा जल पीए; इसी प्रकार थोड़ा बोले / वह सदा क्षमाशील, (या कष्टसहिष्णु), लोभादि से रहित, शान्त, दान्त, (जितेन्द्रिय) एवं विषय भोगों में अनासक्त रहकर सदैव सर्व प्रवृत्तियों में यतना करे अथवा संयम पालन में प्रयत्न (पुरुषार्थ) करे। 14 तुलना कीजिए-'नो इहलोगळ्याए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोमट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो कित्ति-वन्न-सह सिलोगळ्याए तवमहिटिज्जा; नम्नत्थ निज्जरठ्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा / -दशवकालिक सूत्र अ०६ उ०४ सू०४ 15 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 174 (ख) शास्त्रावगाह-परिघट्टन तत्परोऽपि / नैवाऽबूधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् / 16 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 174 (ख) सम्यग्दृष्टि का समस्त अनुष्ठान संयम-तपःप्रधान होता है, उनका संयम अनाश्रव (संवर) रूप और तप निर्जरा फलदायक होता है। कहा भी है-'संजमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org