Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गाथा 464 से 472 371 470. गृहवास में श्रु तज्ञानरूपी दीप का या सर्वज्ञोक्त चारित्ररूपी द्वीप का लाभ न देख जो मनुष्य प्रव्रज्या धारण करके मुमुक्षुपुरुषों द्वारा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्ष के योग्य [पुरुषदानीय] बन जाते हैं; वे वीर कर्मवन्धनों से विमुक्त हो जाते हैं, फिर वे असंयमी जीवन की आकांक्षा नही करते। 471. साधु मनोज्ञ शब्द (रूप, रस, गन्ध) एवं स्पर्श में आसक्त (गृद्ध) न हो, सावध आरम्भजनित कार्यों से अनिश्रित (असम्बद्ध) रहे / इस अध्ययन के प्रारम्भ से लेकर यहाँ तक जो बहुत सी बातें निषिद्ध रूप से कही गई हैं, वे सब जिनागम (सिद्धान्त) से विरुद्ध (समयातीत) हैं, अथवा जो बातें विधान रूप से कही गई हैं, वे सब कुतीर्थिकों के सिद्धान्तों से विरुद्ध, लोकोत्तर उत्तम धर्मरूप हैं। 472. पण्डित मुनि अतिमान और माया, तथा ऋद्धि-रस-सातारूप सभी गौरवों को (संसारकारण) जानकर उनका परित्याग करे और स्वयं को (समस्त कर्मक्षय रूप) निर्वाह की साधना से जोड़े या निर्वाण को ही पाने की अभिलाषा रखे / -~-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन -- लोकोत्तर (श्रमण) धर्म के कतिपय आचारसूत्र-सूत्रगाथा 464 से 472 तक नौ गाथाओं द्वारा मुनिधर्म के कुछ विशिष्ट आचारसूत्रों का उल्लेख किया है-(१) साधु न तो स्वयं कुशील बने और न ही कुशीलजनों से सम्पर्क रखे, (2) कुशीलजनसंसर्ग से होने वाले अनुकूल उपसर्गों से सावधान रहे, (3) अकारण गृहस्थ के घर में न बैठे, (4) बच्चों के खेल में भाग न ले, (5) मर्यादा का अतिक्रमण करके न हंसे, (7) मनोज्ञ शब्दादि विषयों में कोई उत्कण्ठा न रखे, अनायास प्राप्त हों तो भी यतनापूर्वक आगे बढ़ जाए, उन पर संयम रखे, (8) साधुचर्या में अप्रमत्त रहे, (6) परीषहोपसर्गों से पीड़ित होने पर उन्हें समभाव से सहे, (10) प्रहार करने वाले पर क्रुद्ध न हो, न ही उसे अपशब्द कहे, न ही मन में कुढ़े, बल्कि प्रसत्र मन से चुपचाप सहन करे, (11) उपलब्ध हो सकने वाने काम-भोगों की लालसा न करे, (12) आचार्यादि के चरणों में रहकर सदा आर्य धर्म सीखे, विवेकसम्पन्न बने, (13) स्व-परसिद्धान्तों के सुज्ञाता उत्तम तपस्वी गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा एवं उपासना करे, (14) कर्मक्षय करने में वीर बने, (15) आप्त पुरुषों की केवलज्ञानरूप प्रज्ञा का या आत्मप्रज्ञा का अन्वेषक बने, (16) धृतिमान् हो, (17) जितेन्द्रिय हो, (18) गृहवास में उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन-चारित्र का लाभ न देखकर मुनि धर्म में दीक्षित साधु असंयमी जीवन की आकांक्षा न करे बल्कि वीरतापूर्वक कर्मबन्धनों से मुक्त बने, (19) मनोज्ञ शब्दादि में आसक्त न हो, (20) सावध आरम्भजनित कार्यों से असम्बद्ध रहे (21) सिद्धान्तविरुद्ध सब आचरणों से दूर रहे, (22) मान, माया, एवं सर्व प्रकार के गौरव को संसार का कारण जानकर परित्याग करे, और (23) निर्वाण रूप लक्ष्य का सन्धान करे / ये ही वे मौलिक आचार सूत्र हैं, जिन पर चलकर मुनि अपने श्रमण धर्म को उज्ज्वल एवं परिष्कृत बनाता है / 12 12 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 183, 184 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org