Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गापा 512 से 517 हो जाने पर समस्त ग्रन्थियों से मुक्ति (छुटकारा) हो जाती है।" इसका फलितार्थ यह हैं कि जब साधु एषणादि दोषयुक्त दुप्पाच्य, गरिष्ठ अशुद्ध आहार ग्रहण एवं सेवन करेगा, तब उसकी बुद्धि एवं आत्मस्मृति कुण्ठित, सुस्त हो जाएगी, सात्त्विक विचार करने की स्फूति नहीं रहेगी। फलतः अनेक अन्य दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है ! इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने शुद्ध आहार में एक कण भी अशुद्ध आहार का मिला हो, या अशुद्ध आहार की शंका हो तो उसे ग्रहण या सेवन करने का निषेध किया है, क्योंकि अशुद्ध आहार सयम-विघातक, कर्म ग्रन्थियों के भेदन में रुकावट डालने वाला एवं मोक्षमार्ग में विघ्नकारक हो जाता है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने एषणासमिति को मार्ग बताकर उसे साधुधर्म बताया है। भाषा समिति मार्ग-विवेक 512. ठाणाई संति सड्ढीणं, गामेसु णगरेसु वा। अस्थि वा पत्थि वा धम्मो ? अस्थि धम्मो त्ति गो वदे // 16 // 513. अत्थि वा गस्थि वा पुष्णं ?, अत्थि पुण्णं ति णो वदे। अहवा गस्थि पुण्णं ति, एवमेयं महब्भयं // 17 // 514. दाणट्ठयाए जे पाणा, हम्मति तस-थावरा। तेसि सारवखणट्ठाए, तम्हा अस्थि ति णो वए // 18 // 515. जेसि तं उवकाति, अण्ण-पाणं तहाविहं। तेसि लामंतरायं ति, तम्हा पत्थि त्ति णो वदे / / 16 / / 516. जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं / जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करेंति ते // 20 // 517. दुहओ वि ते ण भासंति, अस्थि वा नत्थि वा पुणो। आयं रयस्स हेच्चाणं, णिव्वाणं पाउणंति ते // 21 // 512-513. ग्रामों या नगरों में धर्म श्रद्धालु श्रावकों के स्वामित्व के स्थान साधुओं को ठहरने के लिए प्राप्त होते हैं / वहां कोई धर्मश्रद्धालु हिंसामय कार्य करे तो आत्मगुप्त (अपने को पापप्रवृत्ति से बचाने वाला) जितेन्द्रिय साधु उस हिंसा का अनुमोदन न करे। 4 "आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रु वा स्मृतिः; स्मृति लम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष: / " -छान्दोग्योपनिषद् खण्ड 16 अ० 7 सू० 2 5 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 201 (ख) एस धम्मे सीमतो'--सूत्र क० मू० पा० टिप्पण पृ० 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org