Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सूत्रकृतांग-एकावा अध्ययन-मार्ग यदि कोई साधु से पूछे कि इस (पूर्वोक्त प्रकार के आरम्भजन्य) कार्य में पुण्य है या नहीं ? तब साधु पुण्य है, यह न कहे अथवा पुण्य नहीं होता, यह कहना भी महाभयकारक है। __ 514-515. अन्न या पानी आदि के दान के लिए जो त्रस और स्थावर अनेक प्राणी मारे जाते हैं, उनकी रक्षा करने के हेतु से साधु उक्त कार्य में पुण्य होता है, यह न कहे। किन्तु जिन जीवों को दान देने के लिये तथाविध (आरम्भपूर्वक) अन्नपान बनाया जाता है, उनको (उन वस्तुओं के) लाभ होने में अन्तराय होगा, इस दृष्टि से साधु उस कार्य में पुण्य नहीं होता ऐसा भी न कहे। 516. जो दान (सचित्त पदार्थों के आरम्भ से जनित वस्तुओं के दान) की (आरम्भक्रिया करते समय) प्रशंसा करते हैं, वे (प्रकारात र से) प्राणियों के वध की इच्छा (अनुमोदना) करते हैं, जो दान का निषेध करते हैं, वे वृत्ति-छेदन (प्राणियों की जीविका का नाश) करते हैं। 517. अत: (हिंसा रूप आरम्भ से जन्य वस्तुओं के) दान में 'पुण्य होता है' या 'पुण्य नहीं होता', ये दोनों बाते साध नहीं कहते। ऐसे (विषय में मौन या तटस्थ रहकर या निरवध भाषण के द्वारा) कर्मों की आय (आश्रव) को त्यागकर निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं। विवेचन- भाषा-समिति-मार्ग-बिवेष-प्रस्तुत सूत्र गाथाओं में अहिंसा महावती साधु को अहिंसा व्रत की सुरक्षा के लिए भाषा-समिति का विवेक बताया गया है। भाषा विवेक सम्बन्धी गाथाओं का हार्द-साधु पूर्ण अहिंसाव्रती है, वह मन-वचन-काया से न स्वयं हिंसा कर या करा सकता है, न ही हिंसा का अनुमोदन कर सकता है। और यह भी स्वाभाविक है कि धर्म का उत्कृष्ट पालक एवं मार्गदर्शक होने के नाते ग्रामों या नगरों में धर्म श्रद्धालु लोगों द्वारा बनवाए हा धर्मशाला, पथिकशाला, जलशाला, अन्नशाला आदि किसी स्थान में वे लोग साधु को ठहराएँ। वहाँ कोई व्यक्ति दान-धर्मार्थ किसी चीज को आरम्भपूर्वक तैयार करना चाहे या कर रहे हैं उस सम्बन्ध में साधु से पूछे कि हमारे इस कार्य में पुण्य है या नहीं ? साधु के समक्ष इस प्रकार का धर्म संकट उपस्थित होने पर वह क्या उत्तर दे ? शास्त्रकार ने इस सम्बन्ध में भाषा समिति से अनुप्राणित धर्म मार्ग का विवेक बताया है, कि साधु यह देखे कि उस दानार्थ तैयार की जाने वाली वस्तु में त्रस-स्थावर प्राणियों की हिंसा अनिवार्य है, या हिंसा हुई है, ऐसी स्थिति में यदि वह उस कार्य को पुण्य है, ऐसा कहता है या उसकी प्रशंसा करता है तो उन प्राणियों की हिंसा के अनुमोदन का दोष उसे लगता है, इसलिए उक्त आरम्भजनित कार्य में 'पुण्य है', ऐसा न कहे। साथ ही वह ऐसा भी न कहे कि 'पुण्य नहीं होता है', क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति साधु के मुंह से 'पुण्य नहीं होता है, ऐसे उद्गार सुनकर उनको उक्त वस्तुओं का दान देने से रुक जाएगा / फलतः जिन लोगों को उन वस्तुओं का लाभ मिलना था, वह नहीं मिल पाएगा, उनके जीविका में बहुत बड़ा अन्तराय आ जाएगा। सम्भव है, वे लोग उन वस्तुओं के न मिलने से भूखे-प्यासे मर जाएँ। इसीलिए शास्त्रकार स्पष्ट मार्गदर्शन देते हैं-दुहओ वि तेण मास ति, अस्थि वा नस्थि वा पुणो।' अर्थात्-साधु ऐसे समय में पुण्य होता है, या नहीं होता, इस प्रकार दोनों तरफ की बात न कहे, तटस्थ रहे। इस कारण भी शास्त्रकार 516 वीं सूत्रगाथा में स्पष्ट कर देते हैं। साधु के द्वारा आरम्भजनित उक्त दान की प्रशंसा करना या पुण्य कहना आरम्भक्रियाजनित प्राणिवध को अपने पर ओढ़ लेना है, अथवा अनुकम्पा बुद्धि से दिये जाने वाले उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org