Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गाथा ४२.से४३१ 351 431. (पाप से) आत्मा के गोप्ता (रक्षक) जितेन्द्रिय साधक किसी के द्वारा (अतीत में) किया हुआ, (वर्तमान में) किया जाता हुआ और भविष्य में किया जाने वाला जो पाप है, उस सबका (मनबचन काया से) अनुमोदन-समर्थन नहीं करते। विवेचन-पण्डित (अकर्म) वीर्य साधना के प्रेरणा सूत्र-प्रस्तुत 13 सूत्रगाथाओं (सू० गा० 416 से 431 तक) में पण्डितवीर्य की साधना के लिए 26 प्रेरणासून फलित होते हैं--(१) वह भव्य (मोक्षगमन योग्य) हो, (2) अल्पकषायी हो, (3) कषायात्मक बन्धनों से उन्मुक्त हो, (4) पापकर्म के कारणभूत आश्रवों को हटाकर और कषायात्मक बन्धनों को काटकर शल्यवत् शेष कर्मों को काटने के लिए उद्यत रहे / (5) मोक्ष की ओर ले जाने वाले (नेता) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिए पुरुषार्थ करे, (6) ध्यान, स्वाध्याय आदि मोक्षसाधक अनुष्ठानों में सम्यक् उद्यम करे, (7) धर्मध्यानारोहण के लिए बालवीर्य की दुःख-प्रदता एवं अशुभ कर्मबन्धकारणता का तथा सुगतियों में भी उच्च स्थानों एवं परिजनों के साथ संवास की अनित्यता का अनुप्रेक्षण करे, (8) इस प्रकार के चिन्तनपूर्वक इन सबके प्रति अपनी आसक्ति या ममत्वबुद्धि हटा दे, (9) सर्वधर्ममान्य इस आर्य (रत्नत्रयात्मक मोक्ष ) मार्ग को स्वीकार करे, (10) न बुद्धि से धर्म के सार को जान-सुनकर आत्मा के ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में उद्यम करे, (11) पापयुक्त अनुष्ठान का त्याग करे, (12) अपनी आयू का उपक्रम किसी प्रकार से जान जाए तो यथाशीघ्र संलेखना रूप या पण्डित मरणरूप शिक्षा ग्रहण करे, (13) कछुआ जैसे अंगों का संकोच कर लेता है, वैसे ही पण्डितसाधक पापरूप कार्यों को सम्यक् धर्मध्यानादि की भावना से संकुचित कर ले, (14) अनशनकाल में समस्त व्यापारों से अपने हाथ-पैरों को, अकुशल संकल्पों से मन को रोक ले तथा इन्द्रियों को अनुकल-प्रतिकूल विषयों में राग-द्वेष छोड़कर संकुचित कर ले, (15) पापरूप परिणाम वाली दुष्कामनाओं का तथा पापरूप भाषादोष का त्याग करे, (16) लेशमात्र भी अभिमान और माया न करे; (17) इनके अनिष्ट फल को जानकर सुखप्राप्ति के गौरव में उद्यत न हो, (18) उपशान्त तथा निःस्पह या मायारहित होकर विचरण करे, (16) वह प्राणिहिंसा न करे, (20) अदत्त ग्रहण न करे; (21) मायासहित असत्य न बोले, (22) प्राणियों के प्राणों का उत्पीड़न काया से ही नहीं, वचन और मन से भी न करे, (23) बाहर और अन्दर से संवृत (गुप्त) होकर रहे, (24) इन्द्रिय-दमन करे, (25) मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादिरूप संयम की आराधना करे; (26) पाप से आत्मा को बचाए, (27) जितेन्द्रिय रहे और (28) किसी के द्वारा अतीत में किये हुए वर्तमान में किया जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का मन-वचन-काया से अनुमोदन भी न करे। कठिन शब्दों की व्याख्या-दविए =वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं--(१) द्रव्य=भव्य (मुक्ति ) व्यभूत=अकषायी, और (3) वीतरागवत् अल्पकषायी वीतराग। यद्यपि छठे सातवें गुणस्थान (सरागधर्म) में स्थित साधक सर्वथा कषायरहित नहीं होता, तथापि अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने से तथा संज्वलन कषाय का भी तीन उदय न होने से वह अकषायी वीतराग के समान ही होता है। नेयाउयं वृत्तिकार ने दो अर्थ किये हैं-नेता=सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग अथवा श्रुतचारित्ररूप धर्म, जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला है। सम्य 8 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 170 से 173 तक का सारांश Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org