Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गाथा / 352 से 353 पाठान्तर एवं कठिन शब्दों को व्याख्या--साधुसमिक्खयाए = वृत्तिकार के अनुसार-(साधु) सुन्दररूप से समीक्षा-पदार्थ के यथार्थ तत्त्व (स्वरूप) का निश्चय करके अथवा समत्वदृष्टिपूर्वक। चणिकार सम्मत पाठान्तर है--साधुसमिक्खदाए अर्थ किया है - केवलज्ञान के प्रकाश में सम्यक रूप से देखकर / 'कहं च णाणं' =वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं--(१) भगवान ने इतना विशुद्धज्ञान कहाँ से या कैसे प्राप्त किया था? (2) भगवान महावीर का ज्ञान-विशेष अर्थ को प्रकाशित करने वाला बोध-कैसा था ? 'कह दसणं से ?' वत्तिकार ने इसके भी दो अर्थ किये हैं-(१) विश्व के समस्त चराचर या सजीवनिर्जीव पदार्थों को देखने या उनकी यथार्थ वस्तु स्थिति पर विचार करने की उनकी दृष्टि (दर्शन) कैसी थी? (2) उनका दर्शन-सामान्य रूप से अर्थ को प्रकाशित करने वाला बोध-कैसा था? सील-यम(महाव्रत), नियम-(समिति-गुप्ति आदि के पोषक नियम, त्याग, तप आदि) रूप शील-आचार नातसुतस्स =ज्ञातवंशीय क्षत्रियों के पुत्र का / अगारिणो वृत्तिकार के अनुसार-क्षत्रिय आदि गृहस्थ / चूणिकार के अनुसार-'अकारिणस्तु क्षत्रिय-विट्-शूद्राः' अकारी का अर्थ है-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र / माणावृत्तिकार के अनुसार-ब्राह्मण-ब्रह्मचर्यादि अनुष्ठान में रत। चणि कार के अनुसार-'माहणा-श्रावका ब्राह्मणजातीया वा' अर्थात्- माहन का अर्थ है -श्रावक या ब्राह्मणजातीय। अनेक गुणों से विभूषित भगवान महावीर की महिमा 354. खेयण्णए से कुसले आसुपन्न, अणतणाणी य अणंतदंसी। जसंसियो चक्लुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्म च धिई च पेहा / / 3 / / 355. उड्डअहे य तिरि दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे, दीवे व धम्म समियं उदाहु // 4 // 356. से सम्वदंसो अभिभूय णाणो, निरामगंधे धिइमं ठितप्पा। अणुत्तरे सव्वजगसि विज्ज, गंथा अतीते अभए अणाऊ / / 5 // 357. से भूतिपण्णे अणिएयचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू।। अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वइरोणिदे व तमं पगासे // 6 // 358. अणुत्तरं धम्ममिणं, जिणाणं णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। इंदे व देवाण महाणुभावे, सहस्सनेता दिवि णं विसि? // 7 // 2 वैशाली (बसाढ़ जि० मुजफ्फरपुर) के जरिया भूमिहार 'ज्ञात' ही है। आज भी उम प्रदेश के लाखों जैथरियाकाश्यप गोत्री हैं। ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय लिच्छवी गणतंत्रियों की शाखा थे। -अर्थागम (हिन्दी) प्रथम खण्ड पृ० 163 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पन्नांक 142-143 (ख) सूपगडंगसुत्त चूणि (मूलपाठ-टिप्पण) पृ० 63 4 सूयगडंगसुत्त कतिपय विशिष्ट टिप्पण (जम्बूविजय जो सम्पादित) पु० 365 5 शीलांक टीका में--"खेयण्णए से कुसले महेसी" पाठान्तर हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org