Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 326 सूत्रकृतांग-षष्ठ अध्ययन-महावीरस्तव बल से सर्वकर्मों का क्षय करके परमसिद्धि-आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था प्राप्त की। (4) भगवान ज्ञान और चारित्र में सर्वश्रेष्ठ हैं, जैसे वृक्षों में देवकुरु क्षेत्र का शाल्मलीवृक्ष तथा वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ माना जाता है / (5) मुनियों में लौकिक सुखाकांक्षा की प्रतिज्ञा (संकल्प-निदान) से रहित भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं, जैसे कि ध्वनियों में मेघध्वनि, तारों में चन्द्रमा और सुगन्धित पदार्थों में चन्दन श्रेष्ठ कहा जाता है, (6) तपःसाधना के क्षेत्र में सर्वोपरि मुनिवर महावीर है. जैसे समुद्रों में स्वयम्भूरमण, नागदेवों में धरणेन्द्र एवं रसवाले समुद्रों में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ माना जाता है, (7) निर्वाणवादियों में भगवान महावीर प्रमुख हैं, जैसे हाथियों में ऐरावत, मगों में सिंह, नदियों में गंगानदी तथा लियों में गरुडपक्षी प्रधान माना जाता हैं। (8) ऋषियों में वर्धमान महावीर श्रेष्ठ हैं, जैसे योद्धाओ में विश्वसेन या विष्वक्सेन, फूलो में अरविन्द, क्षत्रियों में दान्तवाक्य या दन्तवक्र' श्रेष्ठ माना जाता है, (6) तीनों लोकों में उत्तम ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर है, जैसे कि दानों में अभयदान, सत्यों में निर. वद्य सत्य और तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम माना जाता है। (10) समस्त ज्ञानियों में ज्ञातपुत्र महावीर सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी हैं, जैसे कि स्थिति वालों में लवसप्तम अर्थात् अनुत्तर विमानवासी देव, सभाओं में सुधर्मासभा एवं धर्मों में निर्वाण श्रेष्ठ धर्म है। यों विविध उपमाओं से भगवान महावीर की श्रेष्ठता सिद्ध की गई है। भगवान महावीर की विशिष्ट उपलब्धियाँ 376. पुढोवमे धुणति विगतगेही, न सन्निहिं कुब्वति आसुपण्णे / तरतु समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वोरे अणंतचक्खू // 25 // 377. कोहं च माणं च तहेव माय, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा / एताणि वंता अरहा महेसी, ण कुयति पावं ण कारवती // 26 // 378. किरियाकिरियं देणइयाणुवायं, अण्णाणियाण पडियच्च ठाणं / से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवट्ठिते संजम दोहरायं // 27 // 376. से वारिया इत्थि सराइभत्त, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोग विदित्ता आरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारं // 28 // 10 'वीससेणे' इसके संस्कृत में दो रूप होते हैं - "विश्वसेनः, विष्वक्सेनः।" वृत्तिकार ने प्रथम रूप मानकर विश्वसेन का अर्थ चक्रवर्ती किया है, जबकि चूणिकार ने दोनों रूप मानकर प्रथम का अर्थ-चक्रवर्ती और द्वितीय का वासुदेव किया है। देखिये अमरकोश प्रथम काण्ड में विष्णुनारायणो कृष्णो वैकुण्ठो विष्ट रश्रवाः / पीताम्बरोऽच्युतः शाङ्गी विष्वक्सेनो जनार्दनः / / 11 दंतवक्के-चूणि और वृत्ति में 'दान्तवाक्य' का अर्थ चक्रवर्ती किया गया है। भागवत पुराण (दशमस्कन्ध के 78 वें अध्याय) में श्री कृष्ण की फूफी के पुत्र गदाधारी 'दन्तवक्त्र' का उल्लेख मिलता है। महाभारत के आदिपर्व (1/61/ 57) में 'दन्तवक्त्र' तथा सभापर्व (2/28/3) में 'दन्तवक्र' राजा का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org