Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 342 सूत्रकृतांग-सप्तम अध्ययन-कुशील परिभाषित हो, अनियतचारी (अप्रतिबद्धविहारी) और अभयंकर (जो न स्वयं भयभीत हो और न दूसरों को भयभीत करे) तथा जिसकी आत्मा विषय-कषायों से अनाविल (अनाकुल) हो / 406. मुनि पंचमहाव्रतरूप संयम भार की यात्रा (निर्वाह) के लिए आहार करे। भिक्षु अपने (पूर्वकृत) पाप का त्याग करने की आकांक्षा करे / परोषहोपसर्गजनित दुःख (पीड़ा) का स्पर्श होने पर घुत संयम या मोक्ष का ग्रहण (स्मरण अथवा ध्यान) करे / जैसे योद्धा संग्राम के शीर्ष (मोर्चे) पर डटा रहकर शत्रु-योद्धा का दमन करता है, वैसे ही साधु भी कर्मशत्रुओं के साथ युद्ध में डटा रहकर उनका दमन करे। 410. साधु परीषहों और उपसगों से प्रताड़ित (पीड़ित) होता हुआ भी (उन्हें सहन करे।), जैसे लकड़ी का तख्ता दोनों ओर से छीले जाने पर राग-द्वेष नहीं करता, वैसे ही बाह्य और आभ्यन्तर तप से कष्ट पाता हुआ भी साधक राग-द्वेष न करे। वह अन्तक (मृत्यु) के (समाधि-पूर्वक) समागम की प्रतीक्षा (कांक्षा) करे। जैसे अक्ष (गाड़ी की धुरी) टूट जाने पर गाड़ी आगे नहीं चलती, वैसे ही कर्मक्षय कर देने पर जन्म मरण, रोग, शोक आदि प्रपंच की गाड़ी भी आगे नहीं चलती। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- सुशील साधक के लिए आचार-विचार के विवेकसूत्र - प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (407 से 410 तक) में सुशील साधक के लिए आचार-विचार सम्बन्धी 16 विवेकसूत्र प्रस्तुत किये गए हैं-(१) अज्ञातपिण्ड द्वारा निर्वाह करे, (2) तपस्या के साथ पूजा-प्रतिष्ठा की कामना न करे, (3) मनोज-अमनोज्ञ शब्दों एवं रूपों पर रागद्वेष से संसक्त न हो, (4) इच्छा-मदनरूप समस्त कामों (कामविकारों-मनोज्ञअमनोज्ञ विषयों) के प्रति आसक्ति हटाकर रागद्वेष न करे / (5) सर्वसंगों से दूर रहे, (6) परीषहोपसर्गजनित समस्त दुःखों को समभाव से सहन करे, (7) ज्ञान-दर्शन-चारित्र से परिपूर्ण हो, (8) विषयभोगों में अनासक्त रहे, (8) अप्रतिबद्धविहारी हो, (6) अभयंकर हो, (10) विषय-कषायों से अनाकुल रहे, (11) संयमयात्रा निराबाध चलाने के लिए ही आहार करे, (12) पूर्वकृत पापों का त्याग करने की इच्छा करे, (13) परीषहोपसर्गजनित दुःख का स्पर्श होने पर संयम या मोक्ष (धुत) में ध्यान (स्मरण) रखे। (14) संग्राम के मोर्चे पर सुभट की तरह कर्मशत्रुका दमन करे, (15) परीषहोपसर्गों से प्रताड़ित साधक उन्हें सहन करे, (16) जैसे लकड़ी के तख्ते को दोनों ओर से छीलने पर वह राग-द्वेष नहीं करता, ही बाह्य और आभ्यन्तर तप से दोनों ओर से कष्ट पाता हुआ भो साधक राग-द्वेष न करे, (17) सहज भाव से समाधिपूर्वक समागम की आकांक्षा (प्रतीक्षा) करे। (18) धुरी टूट जाने पर गाड़ी आगे नहीं चलतो, वैसे ही कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने पर जन्म, जरा, मत्यु, रोग, शोक आदि प्रपंच की गाड़ी आगे नहीं चलती। निष्कर्ष पूर्वोक्त आचार-विचार युक्त सुशील सर्वथा कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। पाठान्तर और व्याख्या-'सद्देहि स्वेहि ..."विणीय हि' के बदले चूणिसम्मत पाठान्तर है-'अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धो, सम्वेसु कामेसु णियत्तएज्जा' अर्थ होता है-अन्न और पान में अनासक्त रहे, समस्त कामभोगों पर नियन्त्रण करे। 'अणिए अ चारी' के बदले चूणिसम्भत पाठान्तर है-'ग सिलोगकामी' अर्थात्प्रशंसाकांक्षी न हो। ॥कशील परिभाषित सप्तम अध्ययन समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org