Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ गोमा 305 से 386 333 कुशीलों द्वारा स्थावर जीवों की हिसा के विविध रूप 385. जे मायरं च पियरं चं हेच्चा, समणवदे अगणि समारभेज्जा। अहाहु से लोगे कुसीलधम्मे, भूताई जे हिंसति आतसाते // 5 // 386. उज्जालओ पाण तिवातएज्जा, निवावओ अगणि तिवातइज्जा / तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म, ण पंडिते अगणि समारभेज्जा // 6 // 387. पुढवी वि जीवा आउ वि जीवा, पाणा य संपातिम संपयंति। ___संसेदया कट्ठसमस्सिता य, एते दहे अगणि समारभंते // 7 // 388. हरिताणि भूताणि विलंबगाणि, आहारदेहाई पुढो सिताई। __ जे छिदतो आतसुहं पडुच्चा, पागभि पाणे बहुणं तिवाती / / 8 // 389. जाति च वुड्ढि च विणासयंते, बोयादि अस्संजय आयदंडे / अहाहु से लोए अणज्जधम्मे, बोयादि जे हिंसति आयसाते // 6 // 385. जो अपने माता और पिता को छोड़कर श्रमणवत को धारण करके अग्निकाय का समारम्भ करता है, तथा जो अपने सुख के लिए प्राणियों की हिंसा करता है, वह लोक में कुशील धर्म वाला है, ऐसा (सर्वज्ञ पुरुषों ने) कहा है / 386. आग जलाने वाला व्यक्ति प्राणियों का घात करता है और आग बुझाने वाला व्यक्ति भी अग्निकाय के जीवों का घात करता है। इसलिए मेधावी (मर्यादाशील) पण्डित (पाप से निवृत्त साधक) (अपने) (श्र तचारित्ररूप श्रमण) धर्म का विचार करके अग्निकाय का समारम्भ न करे। 387. पृथ्वी भी जीव है, जल भी जीव है तथा सम्पातिम (उड़ने वाले पतंगे आदि) भी जीव है जो आग में पड़ (कर मर) जाते हैं / और भी पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव एवं काठ (लकड़ी आदि इन्धन) के आश्रित रहने वाले जीव होते हैं। जो अग्निकाय का समारम्भ करता है, वह इन (स्थावर-वस) प्राणियों को जला देता है। 388. हरी दूब अंकुर आदि भी (वनस्पतिकायिक) जीव हैं, वे भी जीव का आकार धारण करते हैं / वे (मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, फल, फूल आदि अवयवों के रूप में) पृथक्-पृथक् रहते हैं। जो व्यक्ति अपने सुख की अपेक्षा से तथा अपने आहार (या आधार-आवास) एवं शरीर-पोषण के लिए इनका छेदनभेदन करता है, वह धृष्ट पुरुष बहुत-से प्राणियों का विनाश करता है। 386. जो असंयमी (गृहस्थ या प्रवजित) पुरुष अपने सुख के लिए बीजादि (विभिन्न प्रकार के बीज वाले अन्न एवं फलादि) का नाश करता है, वह (बोज के द्वारा) जाति (अंकुर की उत्पत्ति) और (फल के रूप में) वृद्धि का विनाश करता है। (वास्तव में) वह व्यक्ति (हिंसा के उक्त पाप द्वारा) अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org