Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 262 सूत्रकृतांग-चतुर्य अध्ययन -स्त्रीपरिज्ञा सातवी प्रेरणा-जब भी कोई नारी कामुकतावश साधु के समक्ष अमुक समय पर अमुक जगह आने का वादा करे या साधु को संकेत दे, या इधर-उधर की बातें बनाकर साधु को विश्वास दिलाकर समागम के लिए मनाने लगे तो विवेकी साधु तुरन्त सम्भल जाए / वह स्त्री की उन सब बातों को नाना प्रकार के कामजाल (पाशबन्धन) समझे। वह इन सब बातों में न आए, बाग्जाल में न फंसे / साधक इस प्रकार की स्त्रियों को मोक्षमार्ग में अगला के समान बाधक समझकर उनके संसर्ग से दूर / स्त्रीसमागम तो दूर रहा, स्त्रीसमागम का चिन्तन भी भयंकर कर्मबन्ध का कारण है / अतः इन्हें प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दे / यही प्रेरणा शास्त्रकार देते हैं-- एताणि चेव से जागे सद्दाणि विरूवरूवाणि / आठबी प्रेरणा--स्त्रियों की मनोज्ञ एवं मीठी-मीठी वातों, चित्ताकर्षक शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि के प्रलोभनों, करुणोत्पादक वचनों अथवा विभिन्न मोहक बातों से साधु सावधान रहे। ऐसे सब प्रलोभनों या आकर्षणों को साधु कामपाश में बांधने के वन्धन समझे, जिस बंधन में एक बार बंध जाने के बाद उससे छटना अत्यन्त कठिन है। और फिर स्त्री के मोहपाश में बंधने के बाद मनुष्य को पश्चात्ताप के सिवाय कोई चारा नहीं रहता, क्योंकि गृहस्थी का चलाना, निभाना और चिन्तामुक्त रहना टेढ़ी खीर है। इसलिए साधु को समय रहते चेत जाना चाहिए। उसे मोहपाश में बाँधने और कामजाल में फंसाने के स्त्री-प्रयुक्त सभी उपसर्गों से सावधान रहना चाहिए, स्त्रियों के संसर्गजनित मोहपाश में कतई न बंधना चाहिए। मुक्तिगमनयोग्य साधु को विवेक बुद्धि से सोचकर स्त्री-संवास या स्त्री-संग करना कथमपि उचित नहीं है, इसे प्रारम्भ से ही तिलांजलि दे देनी चाहिए / यही प्रेरणा २५६वीं सूत्रगाथा के उत्तरार्द्ध में शास्त्रकार देते हैं-'एवं विवेकमायाए संवासो न कप्पती दविए।' नौवीं प्रेरणा-स्त्रीसंसर्ग को शास्त्रकार विषलिप्त काँटा बताकर उसे सर्वथा त्याज्य बताते हैं / एक तो काँटा हो, फिर बह विषलिप्त हो, जो चुभने पर केवल पीड़ा ही नहीं देता, जानलेवा भी बन जाता है / यदि वह शरीर के किसी अंग में चुभ कर टूट जाए तो अनर्थ पैदा करता है, इसी तरह पहले स्त्री का स्मरण, कीर्तन ही अनर्थकारी है, फिर प्रक्षण, गुह्यभाषण, मिलन, एकान्त-उपवेशन, सह-विहार आदि के माध्यम से उसका संसर्ग किया जाए तो विषलिप्त काँटे की तरह केवल एक बार ही प्राण नहीं लेता, अनेक जन्मों तक जन्म-मरण एवं नाना दुःख देता रहता है / एक प्राचीन आचार्य ने कहा है "वरि विसखइयं, न विसयसुहु, इक्कसि विसिणि मरंति। विसयामिस-घाइया पुण, णरा णरएहि पडंति // " 'विष खाना अच्छा, किन्तु विषयसुख का सेवन करना अच्छा नहीं; क्योंकि विष खाने से तो जीव एक ही बार मरण का कष्ट पाता है, किन्तु विषय रूपी माँस के सेवन से मनुष्य नरक के गड्ढे में गिर कर बार-बार कष्ट पाता है / ' विष तो खाने से मनुष्य को मारता है, लेकिन विषय स्मरणमात्र से मनुष्य के संयमी जीवन की हत्या कर डालते हैं। इसीलिए स्त्री विषयों में फंसाने में निमित्त है, इसलिए शास्त्रकार २५७वीं सूत्रगाथा के पूर्वार्द्ध द्वारा साधक को उससे सावधान रहने की प्रेरणा देते हैं- तम्हाउ वज्जए" "कंटगं गच्चा / दसवीं प्रेरणा-साधु परकल्याण की दृष्टि से धर्मकथा करता है, परन्तु यदि वह किसी अकेली स्त्री के घर अकेला जाकर धर्मकथा करता है तो उसकी निर्ग्रन्थता एवं स्वकल्याण (शील-रक्षण) खतरे में Jain Education International Jain Education international . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org