Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 282 सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा लिए विशुद्धात्मा (सुविशुद्धचेता) (स्त्रीसंसर्ग से) अच्छी तरह विमुक्त वह भिक्षु मोक्षपर्यन्त (संयमानुष्ठान में) में प्रवृत्त-उद्यत रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--स्त्रोसंग से विमुक्त रहने का उपदेश-स्त्रीपरिज्ञा---अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने चार गाथाओं (सू० गा० 266 से 266 तक) द्वारा ज्ञपरिक्षा से पूर्वोक्त गाथाओं में कथित स्त्रीसंग से होने वाले अनर्थों को जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसका सर्वथा त्याग करने का उपदेश दिया है। स्त्रीसंग-स्याग क्यों, कैसे और कौन करें ?-प्रस्तुत चतु:सूत्री में स्त्रीसंगत्याग के तीन पहलू हैं-(१) साधु स्त्रीसंगत्याग क्यों करें ? (2) कैसे किस-किस तरीके से करें ? और (3) स्त्री-संगत्यागी किन विशेषताओं से युक्त हो? क्यों करें ? समाधान- साध के लिए स्त्रीसंग परित्याग का प्रथम समाधान यह है कि प्रथम उद्देशक एवं द्वितीय उद्देशक की पूर्वगाथाओं में स्त्रीसंग से होने वाले अनर्थों, पापकर्म के गाढ़ बन्धनों, शीलभ्रष्ट साधक की अवदशाओं एवं विभिन्न विडम्वनाओं को देखते हुए साधु को स्त्रीसंग तथा स्त्रीसंवास से दूर रहना अत्यावश्यक है। जैसा कि सूत्रगाथा 266 के पूर्वार्द्ध में कहा गया है- 'एवं खु तासु बिष्णप्पं संथवं संवासं च चएज्जा। दूसरा समाधान--स्त्रीसंसर्ग इसलिए वर्जनीय है कि तीर्थंकरों गणधरों आदि ने स्त्रीसंसर्ग से उत्पत्र होने वाले तज्जातीय जितने भी कामभोग हैं, उन्हें पापकर्म को पैदा करने वाले या वज्र के समान पापकर्मों से आत्मा को भारी करने वाले बताए हैं ! उत्तराध्ययन सूत्र (अ० 14 / 13) में भगवान् महावीर ने कहा है "खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुवखा पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा। संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा।" काम-भोग क्षणमात्र सुख देने वाले हैं चिरकाल तक दुःख / वे अत्यन्त दुःखकारक और अल्प सुखदायी होते हैं, संसार से मुक्ति के विपक्षीभूत कामभोग अनर्थों की खान है। तीसरा समाधान-पूर्वगाथाओं के अनुसार स्त्रियों द्वारा कामजाल में फंसाने की प्रार्थना, अनुनय, मायाचार आदि विविध तरीके तथा उनके साथ किया जाने वाला विभिन्न प्रकार का संसर्ग-संवास भय है-खतरनाक है. बद्र साध के संयम को खतरे में डाल देता है. इसलिए साधु के लिए वह कथमपि श्रयस्कर-कल्याणकर नहीं है, इस कारण स्त्रीसंग सर्वथा त्याज्य है। इसे ही शास्त्रकार सूत्रगाथा 267 के प्रथम चरण में कहते हैं- 'एयं भयं ण सेयाए / ' .... चौथा समाधान-बीर प्रभु ने स्त्रीसंसर्ग को महामोहकर्मबन्ध का तथा अन्य कर्मों का कारण माना और स्वयं स्त्रीसंसर्गज नित कमरज से मुक्त बने, तथा राग-द्वेष-मोह-विजयी हुए। इसीलिए स्त्रीपरिज्ञाअध्ययन में जो बातें कही गई हैं, वे सब विश्वहितंकर शासनेश श्रमण भगवान् महावीर ने विशेष रूप से साधकों के लिए कही हैं। वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के संघ (तीर्थ) के सभी साधु-साध्वियों के लिए लागू होती हैं / अतः भगवान् महावीर द्वारा रस्त्रीसंगत्याग ब्रह्मचर्य महाव्रती साधु के लिए समादिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org