Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 285 द्वितीय उद्देशक : गाथा 296 से 296 (10) मनोज्ञ शब्द रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का आसक्तिपूर्वक सेवन-उपभोग करे। निष्कर्ष यह है, इन दस प्रकार की ब्रह्मचर्यबाधक परक्रियाओं का सर्वथा परित्याग करने की प्रेरणा भी शास्त्रकार का आशय हो सकता है। पाठान्तर और कठिन शब्दों की व्याख्या-णिलिज्जेज्जा-वृत्तिकार के अनुसार-निलीयेत=लीन-आश्रित -संसक्त हो, आश्रय ले या आश्लेष करे, सम्बाधन (पीड़न या मर्दन) करे, या स्त्री आदि का स्पर्श करे।" चणिकार के अनुसार-णिज्जिं ति हत्थकम्मं न कुर्यात् / निलंजनं नाम स्पर्श करणं अधवा स्वेन पाणिना तं प्रदेश न लीयते / अर्थात--ण णिलेज्ज का अर्थ है-हस्तकर्म न करे अथवा निलंजन कहते हैं-स्पर्श करने को। (स्त्री आदि का स्पर्श न करे) अथवा अपने हाथ से उस गुह्यप्रदेश का पीड़न (मर्दन) न करे। से भिक्खू= भिक्षु, चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-सभिक्खू / अर्थ किया है-'सोमणो भिक्ख समिक्खू' अर्थात्-अच्छाभ भिक्षु / " द्वितीय उद्देशक समाप्त // स्त्री परिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण / / 10 आलओ थीजणाइण्णो, थीकहाय मणोरमा। संथवो चेव नारीणं, तासिं इंदियदरिसणं // 11 // कुइयं रुइयं गीयं हासि यं भुत्ताऽऽसियाणि य। पणीय भतपाणं च अइमाय पाणभोयणं // 12 // गतभूसणमिळं च कामभोगा य दुज्जया। नरस्सत्तगवेसिस्सं विसं तालउडं जहा // 13 // 11 सू० कृ० शीलांक वृत्ति पत्रांक 120 --- उतरा० अ०१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org