Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 272 सूत्रकृतांग : चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिक्षा जा रहा है, यह समझ ले / णो इच्छे अगारमागंतु-वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं-(१) साधु उस मायाविनी स्त्री के घर बार-बार जाने की इच्छा न करे, अथवा (2) साधु संयम भ्रष्ट होकर अपने घर जाने को इच्छा न करे / चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर हैं-(१) णो इच्छेज्ज अगारंगतु, (2) 'णो इच्छेज्ज अगारमावत' पहले पाठान्तर का अर्थ पूर्ववत् है / दूसरे पाठान्तर का अर्थ है-साधु ऐसी मायाविनी स्त्रियों के गृहरूपी भंवर में पड़ने की इच्छा न करे / ' बिइओ उद्देसओ स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधकों की विडम्बना-- 277. ओए सदा ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा। भोगे समणाण सुणेहा, जह भुजति भिक्खुणो एगे // 1 // 276 अह तं तु भेदमावन्न', मुच्छितं भिक्खु काममतिवट्ट। पलिभिदियाण तो पच्छा, पादुद्धटु मुद्धि पहणंति // 2 // 280. जइ केसियाए मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए। केसाणि वि हं लुचिस्सं, नऽन्नत्थ मए चरिज्जासि // 3 // 281. अह णं से होति उवलद्धो, तो पेसंति तहाभूतेहिं / ला उच्छेदं पेहाहि, वग्गुफलाइं आहराहि त्ति // 4 // 282. दारूणि सागपागाए, पज्जोओ वा भविस्सती रातो। पाताणि य मे रयावेहि, एहि य ता मे पट्ठि उम्मद्दे // 5 // 283 वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्नपाणं च आहराहि त्ति / गंधं च रओहरणं च, कासवगं च समाजाणाहि // 6 // 284. अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कुहयं च मे पयच्छाहि / लोद्धं च लोडकुसुमं च, वेणुपलासि च गुलियं च // 7 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 से 113 तक के अनुसार (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० दि० जम्बूविजय जी सम्पादित) पृ० 45 से 50 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org